`कबीर' एक न जाण्यां, तो बहु जांण्या क्या होइ |
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ ||3||
भावार्थ - कबीर कहते हैं -
यदि उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ !
क्योंकि एक का ही तो यह सारा पसारा है, अनेक से एक थोड़े ही बना है |
जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव |
कहै `कबीर' वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव ||4||
भावार्थ -भक्ति जबतक सकाम है, भगवान की सारी सेवा तबतक निष्फल ही है |
निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती है ?
`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत |
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ||5||
भावार्थ - कबीर कहते हैं --
कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया,
क्योंकि (नकली) मित्रों की कोई कमी नहीं |
पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया,
वे ही निश्चिन्त सुख की नींद सो सकते हैं |
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217