कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि |
कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि ||4||
भावार्थ - कामी मनुष्य को अमृत पसंद नहीं आता, वह तो जगह-जगह विष को
ही खोजता रहता है |
कामी जीव की कुबुद्धि जाती नहीं, चाहे स्वयं शम्भु भगवान् ही उपदेश दे-
देकर उसे समझावें |
कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद |
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ||5||
भावार्थ - कामी मनुष्य को लज्जा नहीं आती कुमार्ग पर पैर रखते हुए,
मन में बड़ा आह्लाद होता है उसे |
नींद लगने पर यह नहीं देखा जाता कि बिस्तरा कैसा है,
और भूखा मनुष्य स्वाद नहीं जानता, चाहे जो खा लेता है |
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता |
ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता ||6||
ज्ञानी ने अहंकार में पड़कर अपना मूल भी गवाँ दिया,
वह मानने लगा कि मैं ही सबका कर्ता-धर्त्ता हूँ |
उससे तो संसारी आदमी ही अच्छा, क्योंकि वह डरकर तो चलता है कि
कहीं कोई भूल न हो जाय |
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217