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कबीरदास साहित्य Kabir Das sahitya

कबीरदास साहित्य Kabir Das sahitya

चांणक का अंग

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ |
राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ ||3||
भावार्थ - कलियुग के स्वामी बड़े लोभी हो गये हैं, और उनमें विकार आ गया है,
जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से |
राज-द्वारों पर ये लोग मान-सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं,
जैसे खेतों में बिगड़ैल गायें घुस जाती हैं |

कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ |
दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ ||4||
भावार्थ - कलियुग का यह स्वामी कैसा लालची हो गया है !लोभ बढ़ता ही जाता है इसका |
ब्याज पर यह पैसा उधार देता है और लेखा-जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता है|

`कबीर' कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ |
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ||5||
भावार्थ - कबीर कहते हैं - बहुत बुरा हुआ इस कलियुग में,
कहीं भी आज सच्चे मुनि नहीं मिलते |
आदर हो रहा है आज लालचियों का, लोभियों का और मसखरों का |

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