`कबीर' घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ |
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, बरी दुहेली होइ ||9||
भावार्थ - कबीर कहते हैं -पैरों तले पड़ी हुई घास का भी अनादर नहीं करना चाहिए |
एक छोटा-सा तिनका भी उसकी आँख में यदि पड़ गया, तो बड़ी मुश्किल हो जायगी |
करता केरे बहुत गुण, औगुण कोई नाहिं |
जो दिल कोजौं आपणौं, तौ सब औगुण मुझ माहिं ||10||
भावार्थ - सिरजनहार में गुण-ही-गुण हैं, अवगुण एकभी नहीं |
अवगुण ही देखने हैं, तो हम अपने दिल को ही खोजें |
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ |
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ||11||
भावार्थ - धरती को कितना ही खोदो-खादो, वह सब सहन कर लेती है | और नदी तीर के
वृक्ष बाढ़ को सह लेते हैं |
कटु वचन तो हरिजन ही सहते है, दूसरों से वे सहन नहीं हो सकते |
सीतलता तब जाणियें ,समिता रहै समाइ |
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ||12||
भावार्थ - हमारे अन्दर शीतलता का संचार हो गया है, यह समता आ जाने पर ही जाना
जा सकता है | पक्ष-अपक्ष छोड़कर जबकि हम निष्पक्ष हो जायं | और कटुवचन
जब अपना कुछ भी प्रभाव न डाल सकें |
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217