(18वीं शताब्दी)
भगवत रसिक सखी संप्रदाय के टही-संस्थान के आचार्य ललित-मोहिनीदासजी के शिष्य थे। ये भगवत्-भजन में इतने लीन रहते थे कि इन्होंने गुरु के बाद गद्दी के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। ये अत्यंत निस्पृह थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें सच्चा प्रेम-योगी बताया है। इनके ग्रंथ 'अनन्य निश्चयात्मक में कुंडलियां, दोहे, छप्पय और कवित्त मिलते हैं। इनके साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष दनों का अच्छा समन्वय है। इन्होंने अपने विषय में कहा है-
नाहीं द्वैताद्वैत हरि, नहीं विशिष्टाद्वैत,
बंधे नहीं मतवाद में, ईश्वर इच्छा द्वैत।
पद
लखी जिन लाल की मुसक्यान।
तिनहिं बिसरी बेद-बिधि जप जोग संयम ध्यान॥
नेम ब्रत आचार पूजा पाठ गीता ग्यान।
'रसिक भगवत दृग दई असि, एेंचिकैं मुख म्यान॥
भूलि जिन जाय मन अनत मेरो।
रहौं निशि दिवस श्री वल्लभाधीश पद-कमल सों लाग, बिन मोल को चेरो॥
अन्य संबंध तें अधिक डरपत रहौं, सकल साधन हुंते कर निबेरो।
देह निज गेह यहलोक परलोक लौं, भजौं सीतल चरण छांड अरुझेरो॥
इतनी मांगत महाराज कर जोरि कैं, जैसो हौं तैसो कहाऊं तेरो।
'रसिक सिर कर धरो, भव दुख परिहरो, करो करुणा मोहिं राख नेरो॥
तेरो मुख चंद्र री चकोर मेरे नैना।
पलं न लागे पलक बिन देखे, भूल गए गति पलं लगैं ना॥
हरबरात मिलिबे को निशिदिन, ऐसे मिले मानो कबं मिले ना।
'भगवत रसिक रस की यह बातैं, रसिक बिना कोई समझ सकै ना॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217