(16वीं शताब्दी का उत्तरार्ध)
छीत स्वामी भी अष्टछाप के आठ कवियों में से एक हैं। इनका जन्म 1510 ई. के आसपास माना जाता है। ये मथुरा के पंडा थे तथा आरंभ में उद्दंड प्रकृति के थे। बाद में ये कृष्ण के अनन्य भक्त हो गए। विट्ठलनाथजी ने इन्हें दीक्षा दी। इन्हें ब्रजभूमि से अत्यंत प्रेम था। इनके स्फुट पद ही प्राप्त हैं, जिनमें कृष्ण की लीलाओं का सरस एवं संजीव वर्णन मिलता है।
पद
आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय,
गोविंद को गायन में बसबोइ भावे।
गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें,
गायन की खुर रज अंग लपटावे॥
गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत गिरि कर ले उठावे।
'छीतस्वामी गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी,
ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥
सुमिर मन गोपाल लाल सुंदर अति रूप जाल,
मिटिहैं जंजाल सकल निरखत सँग गोप बाल।
मोर मुकुट सीस धरे, बनमाला सुभग गरे,
सबको मन हरे देख कुंडल की झलक गाल॥
आभूषन अंग सोहे, मोतिन के हार पोहे,
कंठ सिरि मोहे दृग गोपी निरखत निहाल।
'छीतस्वामी गोबर्धन धारी कुँवर नंद सुवन,
गाइन के पाछे-पाछे धरत हैं चटकीली चाल॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217