(1673-1768 ई.)
महाकवि देव के माता-पिता के नाम का पता नहीं चलता। इनके मकान के अवशेष इटावा से 30 मील दूर कुसमरा ग्राम में बताए जाते हैं। इनके वंशज अपने को 'दुबे बतलाते हैं। देव ने 16 वर्ष की आयु से ही काव्य सृजन आरंभ किया तथा अनेक राजाओं और रईसों का सम्मान प्राप्त किया, किन्तु इनकी प्रतिभा के अनुरूप राजाश्रय इन्हें प्राप्त नहीं हुआ। देव रीति-काल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने रीतिकालीन काव्य पध्दति पर लक्षण-ग्रंथ लिखे जिससे ये 'आचार्य कहलाए। इनके ग्रंथों की संख्या 72 बताते हैं, जिनमें 'भाव-विलास, 'भवानी-विलास, 'कुशल-विलास, 'रस-विलास, 'प्रेम-चंद्रिका, 'सुजान-मणि, 'सुजान-विनोद तथा 'सुख-सागर तरंग आदि 19 ग्रंथ प्राप्त हैं। इनमें देव की मौलिक कल्पना-शक्ति तथा परिष्कृत सौंदर्य-बोध का दिग्दर्शन है। इनकी भाषा प्रवाहमय और साहित्यिक है। अंतिम दिनों में ये भक्ति एवं वैराग्य की ओर उन्मुख हो गए थे।
पद
'देव मैं सीस बसायो सनेह कै, भाल मृगम्मद-बिन्दु कै भाख्यौ।
कंचुकि में चुपरयो करि चोवा, लगाय लियो उरसों अभिलाख्यौ॥
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिंगार कै चाख्यौ।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं, नैननि को कजरा करि राख्यौ॥
जबते कुँवर कान्ह, रावरी कलानिधान,
कान परी वाके कँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें 'देव देखी, देवता सी, हँसति सी,
रीझति सी, खीजति सी, रूठति रिसानी सी॥
छोही सी, छली सी, छीन लीनी सी, छकी सी, छीन
जकी सी, टकी सी लगी, थकी, थहरानी सी।
बींधी सी, बँधी सी, बिष बूडति, बिमोहित सी
बैठी बाल बकति, बिलोकति, बिकानी सी॥
धारा में धारा धँसीं निरधार ह्वै, जाय फँसीं उकसीं न ऍंधेरी।
री अगराय गिरीं गहिरी गहि, फेरे फिरीं न घिरीं नहिं घेरी॥
'देव कछू अपनो बस ना, रस लालच लाल चितै भइँ चेरी।
बेगि ही बूडि गई पँखियाँ, ऍंखियाँ मधु की मखियाँ भइँ मेरी॥
भेष भये विष, भावै न भूषन, भूख न भोजन की कछु ईछी।
'देवजू देखे करै बधु सो, मधु, दूधु सुधा दधि माखन छीछी॥
चंदन तौ चितयो नहिं जात, चुभी चित माँहिं चितौनी तिरीछी।
फूल ज्यों सूल, सिला सम सेज, बिछौननि बीच बिछी जनु बीछी॥
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217