(1936-1975 ई.)
धूमिल (मूल नाम सुदामा पाण्डेय) का जन्म वाराणसी केखेवली रामेश्वर ग्राम में हुआ। इनका जीवन प्रारंभ से ही संघर्षमय रहा। बडी कठिनाई से आई.टी.आई. में प्रशिक्षण प्राप्त कर इंस्ट्रक्टर बने तथा 39 वर्ष की अल्पायु में ही ये काल-कवलित हो गए। धूमिल युवा वर्ग के कवि हैं। इनकी कविता में दु:ख, घुटन तथा अन्याय के प्रति आक्रोश है। इनके दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं, 'संसद से सडक तक तथा 'कल सुनना मुझे जो मरणोत्तर प्रकाशित हुआ। ये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए।
किस्सा जनतंत्र
कलछुल-
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है
औरत-
गवें गवें उठती है- गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाडती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोडती)
सरर-फरर बोलती है और बोलती रहती है
बच्चे आंगन में-
आंगड-बांगड खेलते हैं
घोडा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं
एक छोटा-सा जोड-भाग
गश खाती हुई आग के साथ-साथ
चलता है और चलता रहता है।
बडकू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती-बालकिशुन आधे में आधा
कुल रोटी छै
और तभी मुंहदुब्बर
दरबे में आता है- 'खाना तैयार है?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुंहदुब्बर
पेट भर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है
और अब-
पौने दस बजे हैं-
कमरे की हर चीज
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घडी से निकलकर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दांत टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है
दो आंखें दरवाजा खोलती है
दो बच्चे टा-टा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर-
टांगों में अकड भरता है
और खटर-पटर एक ढङ्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदे को ल गया
'ऐसी क्या हडबडी कि जल्दी में पत्नी को
चूमना-
देखो, फिर भूल गया।
***
बीस साल बाद
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आंखें वापस लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड डूब गए हैं।
और जहां हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आंख बनकर रह गई है।
बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूँ
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यूं है
कि खून में उडने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सडकों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फडफडाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।
मगर यह वक्त घबराए हुए लोगों की शर्म
आंकने का नहीं
और न यह पूछने का-
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बडा दुर्भाग्य कौन है!
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस दोपहर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने आप से सवाल करता हूँ-
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ जाता हूँ
चुपचाप।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217