(16वीं शताब्दी का उत्तरार्ध)
गोविंद स्वामी अष्टछाप के अंतिम कवि थे। ये भरतपुर के ओतरा वासी सनाढय ब्राह्मण थे। इन्हे विट्ठलनाथजी ने दीक्षा दी थी। संसार से विरक्त होकर ये गोवर्धन चले गए। वहाँ गिरिराज की कदमखाडी पर ही ये निवास करने लगे। राग सागरोद्भव, राग कल्पद्रुम, राग रत्नाकर तथा अन्य संग्रहों में कुल मिलाकर इनके 257 पद मिलते हैं। इनमें भाव की गहनता एवं अभिव्यक्ति का अनूठापन है। ये कुशल गायक भी थे।
पद
मो मन बसौ श्यामा-श्याम।
श्याम तन मन श्याम कामर, माल की मणि श्याम।
श्याम अंगन श्याम भूषण, वसन हैं अति श्याम।
श्याम-श्याम के प्रेम भीने, 'गोविंद जन भए श्याम॥
देखो माई इत घन उत नँद लाल।
इत बादर गरजत चहुँ दिसि, उत मुरली शब्द रसाल॥
इत तौ राजत धनुष इंद्र कौ, उत राजत वनमाल।
इत दामिनि दमकत चहुँ दिसि, उत पीत वसन गोपाल ॥
इत धुरवा उत चित्रित हैं हरि, बरखत अमृत धार।
इत बक पाँत उडत बादर में, उत मुक्ताफल हार॥
इत कोकिला कोलाहल कूजत, बजत किंकिणी जाल।
'गोविंद प्रभु की बानिक निरखत, मोहि रहीं ब्रजबाल॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217