(1504-1552ई.)
अंगददेवजी सिखों के दूसरे गुरु हैं। इनका जन्म मते की सराय, जिला फिरोजपुर में हुआ था। इनके जन्म का नाम लहिणाजी था। लहिणाजी दुर्गा के भक्त थे। एक बार वैष्णोदेवी जाते समय गुरु नानक इन्हें मिले। उनके दर्शन तथा उपदेश के प्रभाव से इनको ऐसी शांति मिली कि ये उनके अनन्य भक्त हो गए। नानकदेव भी इनकी भक्ति और सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने इनका नाम अंगद रखा तथा अपने पश्चात गुरुगद्दी का अधिकार दिया। ग्रंथ साहब में इनके 63 पद हैं। गुरुमुखी लिपि इन्हीं की देन है। प्रेम, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का प्रचार इनकी वाणी का मुख्य उद्देश्य है।
साखी
रतना फेरी गुथली रतनी खोली आइ।
वखर तै वणजारिआ दूहा रही समाइ॥
जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ।
रतना सार न जागई अंधे वतहिं लोइ॥
जिसु पियारे सिउ नेहु तिसु आगै मरि चल्लिऐ।
ध्रिगु जीवण संसार ताकै पाछे जीवणा॥
जे सउ चंदा उगवहि, सूरज चढहि हजार।
एते चानण होदिऑं, गुर बिनु घोर अंधार॥
जो सिर साईं ना निवै, सो सिर दीजै डारि।
जिस पिंजर महिं विरह नहिं, सो पिंजर लै जारि॥
नानक चिंता मति करहु, चिंता तिसही हेइ।
जल महि जंत उपाइ अनु, तिन भी रोजी देइ॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217