(1791-1871 ई.)
ग्वाल कवि मथुरा निवासी सेवाराम भट्ट के पुत्र थे। इनका जन्म वृंदावन में हुआ। ये नाभा-नरेश महाराज जसवंतसिंह, महाराज रणजीतसिंह तथा अंत में रामपुर के नवाब के आश्रय में रहे। कहते हैं गुरु कृपा से ये एक ही समय में आठ काम कर सकते थे- ग्रंथ रचना, कविता बनाना, प, नाम जपना, शतरंज खेलना, बातचीत करना, अदृष्ट कथन तथा समस्या पूर्ति करना। ग्वाल ने प्रचुर काव्य रचना की है। इन्होंने पिंगल, रस, अलंकार आदि सभी विषयों पर रचना की है। इनके मुख्य ग्रंथ हैं- 'जमुना-लहरी 'रसिकानंद,'हमीर-हठ, 'राधाष्टक, 'कविदर्पण और 'रसरंग। उत्तर रीतिकालीन कवियों में ग्वाल विख्यात हैं। इनकी कविता में चमत्कार है।
पद
जेठ को न त्रास, जाके पास ये बिलास होंय,
खस के मवास पै, गुलाब उछरयो करै।
बिही के मुरब्बे, चांदी के बरक भरे,
पेठे पाग केवरे में, बरफ परयो करै॥
'ग्वाल कवि चंदन, चहल मैं कपूर चूर,
चंदन अतर तर, बसन खरयो करै।
कंजमुखी, कंजनैनी, कंज के बिछौनन पै,
कंजन की पंखी, करकंज तें करयो करै॥
प्यारी आउ छात पै निहारि नए कौतुक ये,
घन की छटा तें खाली नभ में न ठौर हैं।
टे, सूधी, गोल औ चखूंटी, बहु कौनवारीं,
खाली, लदी, खुली, मुंदी, करैं दौरादौर हैं॥
'ग्वाल कवि कारी, धौरी, घुमरारी, घहरारी,
धुरवारी, बरसारी झुकी तौरातौर हैं।
ये आईं, वो आईं, ये गईं, वो गईं,
और ये आईं, उठी आवत वे और हैं॥
और विष जेते, तेते प्राण के हरैया होत,
वंशी के ककी कभू जात न लहर है।
सुनते ही एक संग, रोम रोम रचि जाय,
जीय जारि डारै, पारै बेकली कहर है॥
फाग मैं, कि बाग मैं, कि भाग मैं रही है भरि,
राग मैं, कि लाग मैं कि सौंहैं खात झूठी मैं।
चोरी मैं, कि जोरी मैं, कि रोरी मैं कि मोरी मैं,
कि झूम झकझोरी मैं, कि झोरिन की ऊठी मैं॥
'ग्वाल कवि नैन मैं, कि सैन मैं, कि बैन मैं,
कि रंग लैन-दैन मैं, कि ऊजरी अंगूठी मैं।
मूठी मैं, गुलाल मैं, कि ख्याल मैं तिहारे प्यारी,
कामैं भरी मोहिनी, सो भयौ लाल मूठी मैं॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217