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हिन्दी के कवि

जगनिक

(12वीं शताब्दी)

जगनिक कालिंजर के चंदेल राजा परमार्दिदेव (परमाल 1165-1203 ई.) का भाट था। इसने परमाल के सामंत और सहायक महोबा के आल्हा और ऊदल को नायक मानकर 'आल्ड खण्ड नामक ग्रंथ की रचना की जिसे लोक में 'आल्हा नाम से प्रसिध्दि मिली। इसे जनता ने इतना अपनाया और उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ कि धीरे-धीरे मूल काव्य संभवत: लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुभान है कि मूलग्रंथ बहुत बडा रहा होगा। 1865 ई. में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता है। 'आल्ह खण्ड जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है।

युध्द-वर्णन

खट-खट-खट-खट तेगा बाजै। बोलै छपक-छपक तलवार।
चलै जुनब्बी औ गुजराती। ऊना चलै बिलायत क्यार॥
तेगा चटकैं बर्दवान के। कटि-कटि गिरैं सुघरुआ ज्वान।
पैदल के संग पैदल अभिरे। औ असवारन ते असवार॥
हौदा के संग हौदा मिलिगै। ऊपर पेशकब्ज की मार॥
कटि-कटि शीश गिरै धरनी में। उठि-उठि रूंड करै तलवार।
आठ कोस के तहँ गिरदा में। अंधाधुंध चलै तलवार।
पैग-पैग पर पैदल गिरिगे। उनके दुइ-दुइ पग असवार।
बिसे बिसे पर हाथी डोरे। छोटे पर्वत की उनहार।
कल्ला कटिगै जिन घोडन के। धरती गिरे भरहरा खाय॥
कटे भुसुंडा जिन हाथिन के। दल में गिरैं करौटा खाय।
कटि भुजदंडै रजपूतन की। चेहरा कटि सिपाहिन क्यार॥
दोनों सेना एकमिल हो गईं। ना तिल परै धरनि में जाय।
ज्यों सावन में छूटै फुहारा। त्यों है चलै रक्त की धार॥

परे दुशाला जो लो में जनु नद्दी में परो सिवार।
पगिया डारी जे लोहु में। मानो ताल फूल उतरायँ॥
परी शिरोही हैं ज्वानन की। मानो नाग रहे मन्नाय।
घैहा डारे रण में लोटैं। जिनके प्यास-प्यास रट लागि॥
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला। ऊदनि कहै पुकारि-पुकारि॥
नौकर चाकर तुम नाहीं हौ। तुम सब भैया लगौ हमार।
पाँव पिछाडी को ना धरियो। यारौ रखियो धर्म हमार॥
सन्मुख लडिकै जो मरि जैहो। हृइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
दै-दै पानी रजपूतन को। ऊदनि आगे दियो बढाय॥
झुके सिपाही महुबे वारे। जिनके मार-मार रट लागि।
यहाँ कि बातैं तो यहाँ छोडो। अब आगे के सुनो हवाल॥
लाखिन बोले पृथीराज ते। तुम सुनि लेउ वीर चौहान।
है कोउ क्षत्री तुम्हारे दल में। सन्मुख लडै हमारे साथ॥

यह सुनि पिरथी बोलन लागे। लाखनि सुनो हमारी बात।
बारह रानिन के इकलाता। औ सोलै के सर्व सिंगार॥
आस लकडिया हौ जैचंद की। नाहक देहौ प्राण गँवाय।
कही हमारी लाखनि मानौ। तुम समुहे ते जाउ बराय॥
घुंडी खोली तब लाखनि ने। समुहे छाति दई अडाय।
बोले लाखनि पृथीराज ते। तुम सुनि लेउ पिथौरा राय॥
हिरणाकुश सतयुग में हृइगौ। जाने कियो अखंडित राज।
सो ना अमर भयो पृथवी पर। अब क्या अमर कनौजीराय॥
द्वापर में राजा दुर्योधन। हृइगै बहुत बली सरनाम।
सोनहिं अमर भये धरती पर। अब क्या अमर कनौजीराय॥

(आल्ह-खण्ड)

 

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