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हिन्दी के कवि

जगन्नाथदास 'रत्नाकर

(1866-1932 ई.)

जगन्नाथदास 'रत्नाकर का जन्म काशी के एक समृध्द वैश्य परिवार में हुआ। इनके रहन-सहन में राजसी ठाठ-बाट था। इन्हें हुक्का, इत्र, पान, घुडसवारी आदि का बडा शौक था। काशी से बी.ए. करने के पश्चात ये अयोध्या नरेश प्रतापसिंह के तथा उनके मरणोपरांत महारानीजी के निजी सचिव रहे। इन्हें प्राचीन संस्कृति, मध्यकालीन हिन्दी-काव्य, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, हिन्दी, आयुर्वेद, संगीत, ज्योतिष तथा दर्शन-शास्त्र की अच्छी जानकारी थी। इन्होंने प्रचुर साहित्य सेवा की। 'साहित्य-सुधा निधि और 'सरस्वती पत्रिका का तथा अनेक काव्य-ग्रंथों का संपादन किया तथा साहित्यिक एवं ऐतिहासिक लेख लिखे।
इनकी मुख्य काव्य-कृतियाँ हैं- 'उध्दव-शतक, 'शृंगार-लहरी, 'गंगावतरण, 'वीराष्टक तथा 'रत्नाष्टक आदि। रत्नाकर कल्पनाशील, भावुक तथा काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इनमें आचार्य जैसी प्रतिभा थी। इनका 'उध्दव-शतक सरसता, भाव की तन्मयता तथा उक्ति-वैचित्र्य में अद्वितीय है।

पद

गोकुल की गैल, गैल गैल ग्वालिन की,
गोरस कैं काज लाज-बस कै बहाइबो।
कहै 'रतनाकर रिझाइबो नवेलिनि को,
गाइबो गवाइबो और नाचिबो नचाइबो॥

कीबो स्रमहार मनुहार कै विविध बिधि,
मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबो।
ऊधो सुख-संपति-समाज ब्रज मंडल के,
भूले न भूलैं, भूलैं हमकौं भुलाइबो॥

सुघर सलोने स्याम सुंदर सुजान कान्ह,
करुना-निधान के बसीठ बनि आए हौ।

प्रेम-प्रनधारी गिरधारी को सनेसो नाहिं,
होत हैं अंदेश झूठ बोलत बनाए हौ॥

ज्ञान गुन गौरव-गुमान-भरे फूले फिरौ,
बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ।

रसिक-सिरोमनि को नाम बदनाम करौ,
मेरी जान ऊधो कूर-कूबरी पठाए हौ॥

बैठे भंग छानत अनंग-अरि रंग रमे,
अंग-अंग आनँद-तरंग छबि छावै है।
कहै 'रतनाकर कछूक रंग ढंग औरै,
एकाएक मत्त ह्वै भुजंग दरसावै है॥

तूँबा तोरि, साफी छोरि, मुख विजया सों मोरि,
जैसैं कंज-गंध पै मलिंद मंजु धावै है।
बैल पै बिराजि संग सैल-तनया लै बेगि,
कहत चले यों कान्ह बाँसुरी बजावै है॥

बीर अभिमन्यु की लपालप कृपान बक्र,
सक्र-असनी लौं चक्रव्यूह माहिं चमकी।
कहै 'रतनाकर न ढालनि पै खालनि पै,
झिलिम झपालनि पै क्यों कँ ठमकी॥

आई कंध पै तो बाँटि बंध प्रतिबंध सबै,
काटि काटि संधि लौं जनेवा ताकि तमकी।
सीस पै परी तौ कुंड काटि मुंड काटि फेरि,
रुंड के मुखंड कै धरा पै आनि धमकी॥

 

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