(1889-1937 ई.)
जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के प्रसिध्द और प्रतिष्ठित ‘सुंघनी साहू’ परिवार में हुआ। बाल्यावस्था में ही माता-पिता स्वर्गवासी हुए। मिडिल पास करके 'प्रसाद ने 12 वर्ष की अवस्था में स्कूल छोड दिया और घर पर ही संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फारसी आदि की शिक्षा ली। प्रसाद ने खडी बोली को शुध्द और सशक्त साहित्यिक भाषा का स्वरूप दिया। इनकी शैली में अनुभूति की गहनता, लाक्षणिकता, गीतिमयता, सौंदर्य चेतना आदि छायावादी काव्य के समस्त लक्षण उपस्थित हैं। इन्हें 'हिंदी का रवींद्र कहते हैं। इनकी मुख्य कृतियां 'चंद्रगुप्त, 'स्कंदगुप्त आदि लगभग 12 नाटक, 'आकाशदीप, 'आंधी (कहानी संग्रह), 'कंकाल, 'तितली (उपन्यास) तथा 'आंसू, 'झरना, 'लहर (काव्य संग्रह), 'कामायनी (महाकाव्य) हैं। 'कामायनी इनकी श्रेष्ठ कृति और हिंदी का गौरव ग्रंथ है। दार्शनिक पृष्ठभूमि पर लिखा यह प्रबंध-काव्य छायावादी कविता की सर्वोच्च उपलब्धि है। 'कामायनी पर इन्हें मरणोपरांत 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला था।
प्रयाण गीत
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुध्द शुध्द भारती-
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती-
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है- बढे चलो बढे चलो।
असंख्य कीर्ति-रश्मियां विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी।
अराति सैन्य सिंधु में-सुबाडवाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो-बढे चलो बढे चलो।
श्रध्दा
तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश,
बताओ यह कैसा उद्वेग!
हृदय में क्या है नहीं अधीर,
लालसा जीवन की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग
तुम्हें मन में धर सुंदर वेश!
दु:ख के डर से तुम अज्ञात,
जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज
भविष्यत् से बनकर अनजान।
कर रही लीलामय आनंद,
महा चिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम,
इसी में बस होते अनुरक्त।
काम मंगल से मंडित श्रेय
स्वर्ग, इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल,
बनाते हो असफल भवधाम।
दु:ख की पिछली रजनी बीच,
विकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील,
छिपाए है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यस्त,
हो रहा स्पंदित विश्व महान्,
यही दु:ख-सुख विकास का सत्य,
यही भूमा का मधुमय दान।
नित्य समरसता का अधिकार,
उमडता कारण जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों के बीच,
बिखरते सुख मणिगण द्युतिमान।
(कामायनी)
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217