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हिन्दी के कवि

कीर्ति चौधरी

(जन्म 1934 ई.)

कीर्ति चौधरी सुप्रसिध्द कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा की पुत्री हैं। इनका जन्म उन्नाव के नईमपुर ग्राम में हुआ। आगरे से हिन्दी में एम.ए. किया। विवाह के पश्चात ये अपने पति ओंकारनाथ श्रीवास्तव के साथ लंदन रहने लगीं। ये 'तीसरे सप्तक के कवियों में हैं। 'कविताएं एवं 'खुले हुए आसमान के नीचे इनके काव्य-संग्रह है। इनका नाम नई कविता आंदोलन की प्रथम पंक्ति में लिया जाता है।

सुख
रहता तो सब कुछ वही है,
ये पर्दे-यह खिचडी-ये गमले-
बदलता तो किंचित नहीं है;

लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं-
मेजपोश-कुशनों पर कटे हुए-
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी,
आस-पास बिखरी किताबें सब,
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी,
अनजाने होठों पर गीत उग जाता है :
सुख क्या यही है?
बदलता तो किंचित नहीं है
ये पर्दे-यह खिडकी- ये गमले।

***
आगत का स्वागत
मुंह ढांक कर सोने से बहुत अच्छा है,
कि उठो जरा,
कमरे की गर्द को ही झाड लो।
शेल्फ में बिखरी किताबों का ढेर,
तनिक चुन दो।
छितरे-छितराए सब तिनकों को फेंको।
खिडकी के उढके हुए,
पल्लों को खोलो।
जरा हवा ही आए।
सब रौशन कर जाए।
... हां, अब ठीक
तनिक आहट से बैठो,
जाने किस क्षण कौन आ जाए।
खुली हुई फिजां में,
कोई गीत ही लहर जाए।
आहट में ऐसे प्रतीक्षातुर देख तुम्हें,
कोई फरिश्ता ही आ पडे।
मांगने से जाने क्या दे जाए।

नहीं तो स्वर्ग से निर्वासित,
किसी अप्सरा को ही,
यहां आश्रय दीख पडे।

खुले हुए द्वार से बडी संभावनाएं हैं मित्र!
नहीं तो जाने क्या कौन,
दस्तक दे-देकर लौट जाएंगे।
सुनो,
किसी आगत की प्रतीक्षा में बैठना,
मुंह ढांक कर सोने से बहुत बेहतर है।

***
क्यों
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

उमर बीत जाती है करते खोज,
मीत मन का मिलता ही नहीं,
एक परस के बिना,
हृदय का कुसुम
पार कर आता कितनी ॠतुएं, खिलता नहीं।
उलझा जीवन सुलझाने के लिए
अनेक गांठे खुलतीं,
वह कसती ही जाती जिसमें छोर फंसे हैं।
ऊपर से हंसनेवाला मन अंदर-ही-अंदर रोता है,

ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

छोटी-सी आकांक्षा मन में ही रह जाती,
बडे-बडे सपने पूरे हो जाते, सहसा।
अंदर तक का भेद सहज पा जानेवाली
दृष्टि,
देख न पाती
जीवन की संचित अभिलाषा,
साथ जोडता कितने मन
पर एकाकीपन बढता जाता,
बांट न पाता कोई
ऐसे सूनेपन को
हो कितना ही गहरा नाता,
भरी-पुरी दुनिया में भी मन खुद अपना बोझा ढोता है।
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

कब तक यह अनहोनी घटती ही जाएगी?
कब हाथों को हाथ मिलेंगे
सुदृढ प्रेममय?
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएंगे?
कब सच्चाई का पथ
कांटों भरा न होगा?

क्यों पाने की अभिलाषा में मन हरदम ही कुछ खोता है?
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

**
विगत
यही तो था
जिसे चाहा था
सदा दूसरों के पास देख
मन में सराहा था
'अरे हमारे पास भी यदि होता
तो यह जीवन क्या संकरी गलियों में
बे हिसाब खोता?
हम भी चलते
उस प्रशस्त राज-पथ पर
बढने वालों के कदमों से कदम मिला
बोझे को फूल सा समझते
हम भी चलते
गर्व से सर ऊंचा किए।

पर जो बीत गए हैं कठिन अभावों के क्षण
कहीं वहीं तो नहीं रह गया
वह सरल महत्वाकांक्षी मन
आह! उसके बिना तो सब अधूरा है
वह हर सपना
जो हुआ पूरा है!

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