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हिन्दी के कवि

मलूकदास

(1574-1682 ई.)

मलूकदास का जन्म इलाहाबाद के कडा ग्राम में हुआ। पिता सुंदरदास जाति के क्षत्रिय थे। बचपन से ही मलूकदास को साधुसेवा का व्यसन था। पिता कंबल बेचने भेजते तो ये उन्हें दीन-दुखियों को बाँट देते, सडक पर कूडा देखते तो साफ करने लगते।

सदा ईश्वर-प्रेम में तल्लीन रहते। पुरी के जगन्नाथजी पर इन्हें बडी श्रध्दा थी। आज भी वहाँ भगवान को 'मलूकदास की रोटी का भोग लगता है। इनके विषय में कई चमत्कारी घटनाएँ भी प्रसिध्द हैं। ये फक्कड प्रकृति के साधु थे। इन्होंने 'ज्ञान बोध, 'रतनखान, 'भक्ति विवेक आदि अनेक ग्रंथ रचे। इनका काव्य 'ध्रुव चरित भी प्रसिध्द है। इसकी रचना दोहे-चौपाइयों में है, भाषा अवधी है।

पद

दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है।

तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है॥

तेरोइ एक भरोसो 'मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है।

ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब, मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है॥

साखी

दया धरम हिरदे बसै, बोलै अमरित बैन।

तेई ऊँचे जानिये, जिनके नीचे नैन॥

आदर मान, महत्व, सत, बालापन को नेहु।

यह चारों तबहीं गए जबहिं कहा कछु देहु॥

इस जीने का गर्व क्या, कहाँ देह की प्रीत।

बात कहत ढर जात है, बालू की सी भीत॥

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।

दास 'मलूका कह गए, सबके दाता राम॥

 

 

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