(1699-1757 ई.)
किशनगढ नरेश महाराज सावंतसिंह ही नागरीदास के नाम से कवि के रूप में प्रसिध्द हुए। ये बडे योग्य और पराक्रमी थे, किंतु गृह-कलह के कारण इन्हें राजपाट से वैराग्य हो गया और अपने पुत्र सरदारसिंह को राजगद्दी देकर ये स्वयं वृंदावन चले गए। नागरीदास के 75 ग्रंथ बताए जाते हैं जिनमें अधिकांश 'नागर समुच्चय में प्रकाशित हैं। इनकी रचनाओं में माधुर्य-भाव की प्रधानता है, जिस पर सूफी प्रेम-दर्शन का प्रभाव जान पडता है।
कुण्डलियां
ताननि की ताननि मही, परयौजुमन धुकि धाहिं।
पैठयो रव गावत स्त्रवनि, मुख तैं निसरत आहि॥
मुख तैं निसरत आहि! साहि नहिं सकत चोट चित।
ज्ञान हरद तैं दरद मिटत नहिं, बिबस लुटत छित॥
रीझ रोग रगमग्यौ पग्यौ, नहिं छूटत प्राननि।
चित चरननि क्यौं छुटैं, प्रेम वारेन की ताननि॥
बोलनि ही औरैं कछू, रसिक सभा की मानि।
मतिवारे समझै नहीं, मतवारे लैं जानि।
मतवारे लैं जानि आन कौं वस्तु न सूझै।
ज्यौ गूंगे को सैन कोउ गूंगो ही बूझै॥
भीजि रहे गुरु कृपा, बचन रस गागरि ढोलनि।
तनक सुनत गरि जात सयानप अलबल बोलनि॥
पद
चरचा करी कैसे जाय।
बात जानत कछुक हमसों, कहत जिय थहराय॥
कथा अकथ सनेह की, उर नारि आवत और।
बेद रामृती उपनिषद् कों, रही नाहिंन ठौर॥
मनहि में है कहनि ताकी, सुनत स्रोता नैन।
सोब नागर लोग बूझत, कहि न आवत बैन।
हमारै मुरलीवारौ स्याम।बिनु मुरली बनमाल चंद्रिका, नहिं पहचानत नाम॥
गोपरूप बृंदावन-चारी, ब्रज-जन पूरन काम।
याहीसों हित चित्त बढौ नित, दिन-दिन पल-छिन जाम॥
नंदीसुर गोबरधन गोकुल, बरसानो बिस्राम।
'नागरिदास द्वारका मथुरा, इनसों कैसो काम॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217