(1929-1990 ई.)
रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ में हुआ। वहीं से इन्होंने एम.ए. किया। 'नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक तथा 'दिनमान साप्ताहिक के संपादक रहे। पश्चात् स्वतंत्र लेखन में रत रहे। इन्होंने प्रचुर गद्य और पद्य लिखे हैं। ये 'दूसरा सप्तक के कवियों में हैं। मुख्य काव्य-संग्रह हैं : 'आत्महत्या के विरुध्द, 'हंसो हंसो जल्दी हंसो, 'सीढियों पर धूप में, 'लोग भूल गए हैं, 'कुछ पते कुछ चिट्ठियां आदि। ये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं।
आनेवाला कल
मुझे याद नहीं रहता है वह क्षण
जब सहसा एक नई ताकत मिल जाती है
कोई एक छोटा-सा सच पकडा जाने से
वह क्षण एक और बडे सच में खो जाता है
मुझे एक अधिक बडे अनुभव की खोज में छोडकर।
निश्चय ही जो बडे अनुभव को पाए बिना सब जानते हैं
खुश हैं
मैं रोज-रोज थकता जाता हूँ और मुझे कोई इच्छा नहीं
अपने को बदलने की कीमत इस थकान को देकर चुकाने की।
इसे मेरे पास ही रहने दो
याद यह दिलाएगी कि जब मैं बदलता हूँ
एक बदलती हुई हालत का हिस्सा ही होता हूँ
अद्वितीय अपने में किन्तु सर्वसामान्य।
हर थका चेहरा तुम गौर से देखना
उसमें वह छिपा कहीं होगा गया कल
और आनेवाला कल भी वहीं कहीं होगा।
दे दिया जाता हूँ
मुझे नहीं मालूम था कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी
यानी आज भी
दृश्यालेख इतना सुन्दर हो सकता है :
शाम को सूरज डूबेगा
दूर मकानों की कतार सुनहरी बुंदियों की झालर बन जाएगी
और आकाश रंगारंग होकर हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर
आएगा
एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ देगी
जिस तरह मौके की मांग हो :
और मैं दे दिया जाऊंगा।
इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए
बडे-बडे खुलेपन हैं, अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग
और आसमान की असली शकल।
रात में वह ज्यादा गहरा नीला है और चांद
कुछ ज्यादा चांद के रंग का
पत्तियां गाढी और चौडी और बडे वृक्षों में एक नई खुशबू-
वाले गुच्छों में सफेद फूल।
अंदर, लोग;
जो एक बार जन्म लेकर भाई, बाहन, मां, बच्चे बन चुके हैं
प्यार ने जिन्हें गला कर उनके अपने सांचों में हमेशा के लिए
ढाल दिया है
और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद
उनकी जैसी धातु हो वैसी आवाज उनमें बजा जाती है।
सुनो सुनो, बातों का शोर,
शोर के बीच एक गूंज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
- कितनी नंगी और कितनी बेलौस-
मगर आवाज जीवन का धर्म है इसलिए मढी हुई करतालें बजाते
हैं
लेकिन मैं,
जो कि सिर्फ देखता हूँ, तरस नहीं खाता, न चुमकारता, न
क्या हुआ क्या हुआ करता हूँ।
सुनता हूँ, और दे दिया जाता हूँ।
देखो, देखो, अंधेरा है
और अंधेरे में एक खुशबू है किसी फूल की
रोशनी में जो सूख जाती है।
एक मैदान है जहां हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं
मैदान के मैदान होने के आगे।
और खुला आसमान है जिसके नीचे हवा मुझे गढ देती है
इस तरह कि एक आलोक की धारा है जो बांहों में लपेटकर छोड
देती है और गंधाते, मुंह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएं बार-बार
जबान पर लाते लोगों में
कहां से मेरे लिए दरवाजे खुल जाते हैं जहां ईश्वर
और सादा भोजन है और
मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था।
सिर्फ उनसे मैं ज्यादा दूर-दूर तक हूँ
कई देशों के अधभूखे बच्चे
और बांझ औरतें, मेरे लिए
संगीत की ऊंचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं
और जिंदगी के अंतिम दिनों में काम करते हुए बाप
कांपती साइकिलों पर
भीड में से रास्ता निकाल कर ले जाते हैं
तब मेरी देखती हुई आंखें प्रार्थना करती हैं
और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा
चुका होता है।
किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसंद के परेशान
संगीत में से
एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन
आवाजों को मूर्खों के साथ छोडता हुआ
और एक गूंज रह जाती है शोर के बीच जिसे सब दूसरों से
छिपाते हैं
नंगी और बेलौस,
और उसे मैं दे दिया जाता हूँ।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217