(1398-1518 ई. अनुमानित)
रैदास कबीरदास के समकालीन हैं। दोनों को 120 वर्ष की आयु मिली थी। दोनों के गुरु रामानंद ही थे। रैदास अथवा रविदास, काशी के रहने वाले थे तथा जाति के चमार थे। ये अत्यंत उदार थे। जूतों की सिलाई से जो कुछ मिलता, अधिकांश साधु-संतों पर व्यय कर देते। ये महान ् भक्त थे। इस कारण 'नाभादास ने भक्तमाल में इनकी चर्चा की है। कबीर ने 'संतन में रविदास कहकर इन्हें मान्यता दी है। रैदास के लगभग 200 पद मिलते हैं, जिनकी भाषा बोलचाल की सीधी-सादी भाषा है, किंतु भाव की तन्मयता के कारण प्रभावशाली है। ये गुरु-भक्ति नाम स्मरण, प्रेम, कर्तव्य पालन तथा सत्संग को महत्व देते थे। कहते हैं मीरा के गुरु रैदास ही थे।
पद
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥
प्रभु जी तुम संगति सरन तिहारी।जग-जीवन राम मुरारी॥
गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो॥
स्वाति बूँद बरसे फनि ऊपर, सोई विष होइ जाई।
ओही बूँद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई॥
तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्हारे आसा।
संगति के परताप महातम, आवै बास सुबासा॥
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कहि 'रैदास चमारा॥
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217