(10वीं शताब्दी अनुमानित)
सिध्द कवियों में सरहपा का स्थान मुख्य है। इनकी कर्मभूमि नालंदा (पटना के पास) विश्वविद्यालय थी। इनका नाम सरहपा (संस्कृत रूप शरहस्तपाद) पडने का कारण यह था कि ये शर (बाण) बनाने वाली एक नीच जाति की स्त्री के साथ रहते थे। सिध्दों की परंपरा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था। सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है।
दोहे
एव सरह भणइ खबणाअ मोक्ख महु किम्मि न भावइ।
तत्त रहिअ काया ण ताव पर केवल साहइ॥
पंडिअ सअल सत्थ बक्खाणइ।
देहहि बुध्द बसंत ण जाणइ॥
तरूफल दरिसणे णउ अग्घाइ।
पेज्ज देक्खि किं रोग पसाइ॥
(सरह ऐसा कहता है कि क्षपणकों का मोक्ष मुझे अच्छा नहीं लगता। उनका शरीर तत्वरहित होता है और तत्वरहित शरीर परमपद की साधना नहीं कर सकता।
पंडित सकल शास्त्रों की व्याख्या तो करता है, किंतु अपने ही शरीर में स्थित बुध्द (आत्मा) को नहीं पहचानता।
वृक्ष में लगा हुआ फल देखना उसकी गंध लेना नहीं है। वैद्य को देखने मात्र से क्या रोग दूर हो जाता है?)
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217