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हिन्दी के कवि

शिव बहादुर सिंह भदौरिया

(जन्म 1927 ई.)

शिव बहादुर सिंह भदौरिया का जन्म रायबरेली जिले के धनीपुर ग्राम में हुआ। एम.ए., पी-एच.डी. करने के पश्चात इन्होंने पुलिस विभाग में कार्य किया। सम्प्रति कमला नेहरू डिग्री कॉलेज, तेजगांव, रायबरेली में प्राचार्य पद पर कार्यरत हैं। ये नवगीत विधा के प्रतिष्ठित कवि हैं। इनके काव्य-संग्रह हैं : 'शिञ्जिनी तथा 'पुरवा जो डोल गई। इन्होंने उपन्यास तथा समीक्षाएं भी लिखी हैं।

फागुन

आमों के शीश-
मौर बांधने लगा फागुन।

शून्य की शिलाओं से-
टकराकर ऊब गई,
रंगहीन चाह
नए रंगों में डूब गई,
कोई मन-
वृंदावन,
कहां तक पढे निर्गुन।

खेतों से-
फिर फैली वासंती बांहें,
गोपियां सुगंधों की,
रोक रही राहें,
देखो भ्रमरावलियां-
कौन-सी
बजाएं धुन।
बांसों वाली छाया
देहरी बुहार गई,
मुट्ठी भर धूल, हवा,
कपडों पर मार गई,
मौसम में-
अपना घर भूलने लगे पाहुन।

ऊब

कई-कई दिन।
मन न लगे, मेले में
और अकेले जी ऊबे,
वहां निहारूं अधिक
जहां रवि
तनिक-तनिक डूबे-
किरन लिए अनगिन।

जल में पडी
वृक्ष-छाया को
आंखों में रोपूं,
सागर का विस्तार उठाकर
गागर को सौंपूं,
बैठा रं
निहारूं
जल में मारूं-
कंकडियां गिन-गिन।

दूधिया चांदनी

दूधिया चांदनी फिर आई।
मेरी पिछली यात्राओं के
कुछ भूले चित्र-
उठा लाई।

मैं मुडा अनेक घुमावों पर,
राहें हावी थीं पांवों पर,
फिर खनका आज यहां कंगन,
निर्व्याख्या है मन के कंपन,
किन संदर्भों की कथा-
कांपते तरू-पातों ने दुहराई।
जादू-सा दिखे जुन्हैया में
सपने बरसें अंगनैया में,
त्रिभुवन की श्री मेरे आंगन-
ज्यों सागर लहरे नैया में,
नैया भी
साथ खिवैया के
छिन डूब गई, छिन उतराई।

सुन पडते शब्द बहावों के,
दो पाल दिख रहे नावों के,
धारा में बह-बहकर आते-
टूटे रथ किन्हीं अभावों के,
मेरी बांहें
तट-सी फैलीं,
नदियां-सी कोई हहराई।

 

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