(1900-1977 ई.)
सुमित्रानंदन पंत का जन्म कौसानी, जिला अल्मोडा में हुआ। उच्च शिक्षा के निमित्त पहले काशी और फिर प्रयाग गए, किन्तु शीघ्र ही कॉलेज छोड दिया और घर पर ही हिंदी, बंगला, संस्कृत तथा अंग्रेजी का अध्ययन किया। बाद में प्रयाग आकर बसे, किन्तु अल्मोडा के रम्य प्राकृतिक सौंदर्य की छाप हृदय पर सदा बनी रही। पंत के लगभग 35 काव्य-संग्रह हैं, जिनमें 'उच्छ्वास, 'ग्रंथि, 'वीणा, 'पल्लव, 'गुंजन, 'ग्राम्या, 'स्वर्ण-किरण, 'पल्लविनी, 'चिदम्बरा एवं 'लोकायतन मुख्य हैं। 'अंतिमा काव्य रूपक है। इन्होंने कविता को भाव एवं भाषा सामर्थ्य तथा नई छंद सृष्टि का उपहार दिया। इन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहते हैं। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी तथा आत्मकथा लिखी है। ये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए। इन्हें 'पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।
नौका विहार
शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी है श्रांत, क्लांत, निश्चल!
तापस-बाला गंगा निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु करतल,
लहरें सर पर कोमल कुंतल।
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुंदर,
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर!
साडी की सिकुडन-सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा-से भर
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर।
चांदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर!
सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो पालें चढीं, उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि हंसिनी सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर, बिंबित हो रजत पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊंचे लगते क्षण भर!
कालाकांकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,
पलकों में वैभव स्वप्न सघन।
नौका से उठती जल हिलोर,
हिल पडते नभ के ओर छोर।
विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल,
ज्योतित कर जल का अंतस्तल,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल,
फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल!
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरतीं परी-सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल!
लहरों के घूंघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक मुख,
दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।
प्रथम रश्मि
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊंघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।
शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।
स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!
अनुभूति
तुम आती हो,
नव अंगों का
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।
बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
तुम आती हो,
अंतस्थल में
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
अपलक रह जाते मनोनयन
कह पाते मर्म-कथा न वचन,
तुम आती हो,
तंद्रिल मन में
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।
अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
तुम आती हो,
आनंद-शिखर
प्राणों में ज्वार उठाती हो।
स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
तुम आती हो,
जीवन-पथ पर
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।
जगता छाया-वन में मर्मर,
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
तुम आती हो,
उर तंत्री में
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।
परिवर्तन (अंश)
आज कहां वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत छबि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का यह यौवन विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत शृंगार,
(स्वर्ण भृंगों के गंध विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ सिध्दि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहां वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दु:ख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा मरण भ्रू-पात।
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217