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हिन्दी के कवि

विद्यापति

(14 वीं शताब्दी)

विद्यापति का जन्म मिथिला के बिसपी ग्राम में हुआ था। इनके पिता गणपति ठाकुर मिथिला नरेश शिवसिंह के सभासद थे। विद्यापति के पदों में यत्र-तत्र राजा शिवसिंह एवं रानी लखमा देई का उल्लेख है। विद्यापति कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इनकी अधिकांश रचना संस्कृत एवं अवहट्ट में है। 'कीर्तिलता और 'कीर्तिपताका इनकी अवहट्ट रचनाएँ हैं, जिनमें इनके आश्रयदाता कीर्तिसिंह की वीरता, उदारता और गुणग्राहकता का वर्णन है। इनकी तीसरी रचना 'पदावली है जिसकी भाषा ब्रजभाषा मिश्रित मैथिली है। भू-परिक्रमा, पुरुष-परीक्षा, लिखनावली, शैव-सर्वस्व-सार, गंगा वाक्यावलि, दान वाक्यावलि, दुर्गाभक्ति तरंगिणी, विभाग-सार, वर्षकृत्य, और गया-पतन इनकी अन्य रचना है। गोरक्ष-विजय इनका प्रसिद्ध नाटक है।
विद्यापति के पदों में राधा-कृष्ण के प्रेम के (संयोग, वियोग) दोनों पक्षों का शृंगारिक और मार्मिक वर्णन है। इनमें भावना-प्रधान काव्य के समस्त गुण पाए जाते हैं। ये पद गेय हैं।

 

षटपदी

बहुले भाँति वणिजार हाट हिण्डए जवे आवथि।
खने एके सवे विक्कणथि सवे किछु किनइते पावथि।
सव दिसँ पसरू पसार रूप जोवण गुणे आगरि।
बानिनि वीथी माँडि वइस सए सहसहि नाअरि।
सम्भाषण किथु वेआजइ तासओ कहिनी सब्ब कह।
विक्कणइ वेसाइह अप्प सुखे डीठि कुतूहल लाभ रह।

 

दोहा

सब्बउ केरा रिज नयन तरुणी हेरहि वंक।
चोरी पेम पिआरिओ अपने दोस सशंक॥

(अनेक प्रकार के व्यापारी जब बाजार में अपना माल लाते थे तो एक क्षण में सब कुछ बिक जाता था और सबको कुछ न कुछ खरीदने को मिल जाता था। बाजार सब दिशाओं में फैला था। रूप, यौवन और गुणों में अग्रणी शत सहस्र नागरी स्त्रियाँ गलियों को विभूषित करती बैठी थीं। किसी बहाने लोग आत्म-सुख के लिए उनसे बात करने जाते तो स्वयं बिक जाते। दृष्टि कौतूहल ही उनके हाथ लगता। तरुणी स्त्रियों की तिरछी दृष्टि से सभी रीझ जाते थे, किंतु चोरी से प्रिया का प्रेम पाने के दोष से शंकित रहते थे।)

(कीर्तिलता)

 

पद


चानन भेल विषम सर रे, भूषन भेल भारी॥

सपनहुँ नहिं हरि आएल रे, गोकुल गिरधारी॥

एकसरि ठाढि कदम-तर रे, पथ हेरथि मुरारी॥

हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी॥

जाह जाह तोंहे ऊधव हे, तोहें मधुपुर जाहे॥

चंद्रबदनि नहिं जीउति रे, सुनु गुनमति नारी॥

आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटझारी॥

 

कुसुमति कानन हेरि कमलमुखि मँदि रहु दुओ नयान॥

कोकिल कलरव मधुकर धुनि सुनि कर लए झाँपए कान॥

माधब सुनि सुनि बचन हमारा। तुअ गुने सुंदरि अति भेलि दूबरि।
गुनि-गुनि पेम तोहारा॥

धरनी धरि धनि कत बेरि बइसए पुन तहिं उठए न पारा।
कातर दिठि करि चौदिस हेरि हेरि नयन ढारए जल धारा॥

तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन चौदसि चाँद समान।
भनहि 'विद्यापति सिबसिंह नरपति लखिमा देइ रमान॥

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