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हिन्दी के कवि

विजयदेव नारायण साही

(1924-1982 ई.)

विजयदेव नारायण साही का जन्म काशी में हुआ। प्रयाग से अंग्रेजी में एम.ए. करके तीन वर्ष काशी विद्यापीठ और फिर प्रयाग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। मजदूर संगठनों से सम्बध्द रहे तथा कई बार जेल गए। साही की कविताओं में मर्मस्पर्शी व्यंग्य हैं। 'मछली घर तथा 'साखी इनकी काव्य-कृतियां हैं। ये 'तीसरे सप्तक के चर्चित प्रयोगवादी कवि हैं। इन्होंने निबंध तथा समालोचना भी लिखी है।

दे दे इस साहसी अकेले को
दे दे रे,
दे दे इस साहसी अकेले को
एक बूंद।
ओ संध्या,
ओ फकीर चिडिया,
ओ रुकी हुई हवा,
ओ क्रमश: तर होती हुई जाडे की नर्मी,
ओ आसपास झाडों-झंखाडों पर बैठ रही आत्मीयता :
कैसे? इस धूसर परीक्षण में पंख खोल
कैसे जिया जाता है?
कैसे सब हार त्याग
बार-बार जीवन से स्वत्व लिया जाता है?
कैसे, किस अमृत से
सूखते कपाटों को चीर-चीर
मन को निर्बंध किया जाता है
दे दे इस साहसी अकेले को।

दीवारें
जिस दिन हमने तोडी थीं पहली दीवारें,
(तुम्हें याद है?)
छाती में उत्साह
कंठ में जयध्वनियां थीं।
उछल-उछल कर गले मिले थे,
फिरे बांटते बडी रात तक हम बधाइयां।
काराघर में फैल गई थी यही सनसनी-
लो कौतूहल शांत हो गया।
फिर ये आए-
ये जो दीवारों के बाहर के वासी थे :
उसी तरह इनके भी पैरों में
निशान थे,
उसी तरह इनके हाथों में
रेखाएं-
उसी तरह इनकी भी आंखों में
तलाश थी।
परिचय स्वागत की जब विधियां खत्म हो गई
तब ये बोले-
यहां कहीं कुछ नया नहीं है।
और हमें तब ज्ञात हुआ था
(तुम्हें याद है?)
इसके आगे अभी और भी हैं दीवारें।
तबसे हमने तोडी हैं कितनी दीवारें,
कितनी बार लगाए हमने जय के नारे,
पुष्ट साहसी हाथों की अंतिम चोटों से
जब जब अरराकर टूटीं जिद्दी प्राचीरें,
नभ में उडकर धूल गई है-
(किलकारी भी!)
लेकिन, हर बार क्षितिज पर,
क्रुध्द वृषभ के आगे लाल पताका जैसी,
धीरे-धीरे फिर दीवारें उग आई हैं।
नथुने फुला-फुला कर हमने घन मारे हैं।
अजब तरह की है यह कारा
जिसमें केवल दीवारें ही
दीवारें हैं,
अजब तरह के कारावासी,
जिनकी किस्मत सिर्फ तोडना
सिर्फ तोडना।

 

National Record 2012

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Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)

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