'तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो।' 'तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों को, अनाज माँड़। मैं हुक्का पीता हूँ।' 'तुम चल कर चक्की पीसो, मैं अनाज माँड़ूगी।' विनोद में दु:ख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न हो कर रूपा के बाल गूँधने बैठ गई,जो बिलकुल उलझ कर रह गए थे और होरी खलिहान चला। रसिक बसंत सुगंध और प्रमोद और जीवन की विभूति लुटा रहा था, दोनों हाथों से दिल खोल कर। कोयल आम की डालियों में छिपी अपने रसीली, मधुर, आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बारात-सी लगी बैठी थी। नीम और सिरस और करौंदे अपनी महक में नशा-सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग में पहुँचा तो वृक्षों के नीचे तारे-से खिले थे। उसका व्यथित, निराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्फूरती में जैसे डूब गया। तरंग में आ कर गाने लगा - 'हिया जरत रहत दिन-रैन। आम की डरिया कोयल बोले, तनिक न आवत चैन।' सामने से दुलारी सहुआइन, गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थी। पाँव में मोटे चाँदी के कड़े थे, गले में मोटे सोने की हँसली, चेहरा सूखा हुआ, पर दिल हरा। एक समय था, जब होरी खेत-खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थी, होरी देवर था; इस नाते दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गए, दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दुकान पर बैठी रहती थी और वहीं से सारे गाँव की खबर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जाय, सहुआइन वहाँ बीच-बचाव करने के लिए अवश्य पहुँचेगी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उधर न देती थी। और यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था - जो रुपए लेता, खा कर बैठ रहता - मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करे? नालिश-फरियाद करने से रही, थाना-पुलिस करने से रही, केवल जीभ का बल था, पर ज्यों-ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेजी बढ़ती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गालियों पर लोग हँस देते थे और मजाक में कहते - क्या करेगी रुपए ले कर काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। गरीब को खिला-पिला कर जितनी असीस मिल सके, ले-ले। यही परलोक में काम आएगा। और दुलारी परलोक के नाम से जलती थी।
होरी ने छेड़ा - आज तो भाभी, तुम सचमुच जवान लगती हो। सहुआइन मगन हो कर बोली - आज मंगल का दिन है, नजर न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती-ओढ़ती नहीं। घर से निकलो तो सभी घूरने लगते हैं, जैसे कभी कोई मेहरिया देखी ही न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी। होरी ठिठक गया, बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गए। 'वह तो आजकल बड़े भगत हो गए हैं। देखती नहीं हो, हर पूरनमासी को सत्यनारायन की कथा सुनते हैं और दोनों जून मंदिर में दर्सन करने जाते हैं।' 'ऐसे लंपट जितने होते हैं, सभी बूढ़े हो कर भगत बन जाते हैं! कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछो, मैं अब बुढ़िया हुई, मुझसे क्या हँसी।' 'तुम अभी बुढ़िया कैसे हो गईं भाभी? मुझे तो अब भी.....' 'अच्छा, चुप ही रहना, नहीं डेढ़ सौ गाली दूँगी। लड़का परदेस कमाने लगा, एक दिन नेवता भी न खिलाया, सेंत-मेंत में भाभी बनाने को तैयार।' 'मुझसे कसम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लाया, कहाँ खरच किया, मुझे कुछ भी पता नहीं। बस, एक जोड़ा धोती और एक पगड़ी मेरे हाथ लगी।' 'अच्छा कमाने तो लगा, आज नहीं कल घर सँभालेगा ही। भगवान उसे सुखी रखे। हमारे रुपए भी थोड़ा-थोड़ा देते चलो। सूद ही तो बढ़ रहा है। 'तुम्हारी एक-एक पाई दूँगा भाभी, हाथ में पैसे आने दो। और खा ही जाएँगे, तो कोई बाहर के तो नहीं हैं, हैं तो तुम्हारे ही।'
|