धनिया दाँत कटकटा कर बोली - मैं एक दाना न अनाज दूँगी, न कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता हो, चल कर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगा, डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो और नजराना ले कर दूसरों को दे दो। बाग-बगीचा बेच कर मजे से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते-जी यह नहीं होने का, और तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रह कर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैं, तब भी अपने पसीने की कमाई खाएँगे। होरी ने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा - धनिया, तेरे पैरों पड़ता हूँ, चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती है, उसे सिर झुका कर मंजूर कर। नकू बन कर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँ, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगी? बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे। पंचों, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आए, तो उनकी कुछ परवरिस करें, नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है। धनिया झल्ला कर वहाँ से चली गई और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढो कर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था, पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटर, थोड़ा-सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गई थी। दोनों ने सोचा था, गेहूँ और तिलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम आएगा। लंगे-तंगे पाँच-छ: महीने कट जाएँगे, तब तक जुआर, मक्का, सांवा, धान के दिन आ जाएँगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गई। अनाज तो हाथ से गया ही, सौ रुपए की गठरी और सिर पर लद गई। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया? मगर होनहार कौन टाल सकता है! बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लाद कर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों से अपने कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार, किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खाएँगे, इसकी चिंता प्राणों को सोखे लेती थी, पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सर पर सवार आँकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मूँड़न-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकल कर उसका जीवन विश्रृंखल हो जायगा? तार-तार हो जायगा। जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली - अच्छा अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज! बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे? मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था।
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