मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-13

पेज-123

गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिर्जा ने उसे बुला कर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठ कर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठा कर पटकता, लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कब्ड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गए।

आज युगों के बाद इन जरा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिकतर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गए घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा मिल जाता था, खा कर पड़े रहते थे। प्रात:काल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानंद, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज तो एक यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गए। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिए, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाए ताल ठोंक-ठोंक कर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गई, दो नायक बन गए। गोइयों का चुनाव होने लगा और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ॠतु है।

इधर अहाते के फाटक पर मिर्जा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा ले कर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाए गए थे, नोटिस बाँटे गए थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आएँ और अपने आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछताएगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से ले कर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम था। साधारण जनता के लिए साफ-सुथरी जमीन।

मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और रायसाहब सभी विराजमान थे।

खेल शुरू हुआ तो मिर्जा ने मेहता से कहा - आइए डाक्टर साहब, एक गोईं हमारी और आपकी हो जाए।

मिस मालती बोलीं - फिलासफर का जोड़ फिलासफर ही से हो सकता है।

मिर्जा ने मूँछों पर ताव दे कर कहा - तो क्या आप समझती हैं, मैं फिलासफर नहीं हूँ? मेरे पास पुछल्ला नहीं है, लेकिन हूँ मैं फिलासफर, आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहता जी!

मालती ने पूछा - अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट?

'मैं दोनों हूँ।'

'यह क्यों कर?'

'बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखा, वैसा बन गया।'

'तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।'

'जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और न कभी होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ, और लोग आँखें फोड़ कर और किताबें चाट कर जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फिलासफर ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है?'

डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा - तो चलिए, हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फिलासफर मानता हूँ।

 

 

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