मुंशी प्रेमचंद - गोदान

premchand godan,premchand,best novel in hindi, best literature, sarveshreshth story

गोदान

भाग-14

पेज-131

होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे? गाँव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!

साँझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी, मगर रूपा क्या समझे। बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला, मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था, पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी - उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिए। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।

वहाँ से रूआँसा हो कर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जा कर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली - आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजी? अब तो बेला हो गई।

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी - हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आए? और आए भी तो घर के अंदर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आई। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँध कर ले जाती और चक्की पिसवाती!

धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली - रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जिएँ। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं।

पुनिया की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।

बोली - अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है, कि किसी और की? सुख के दिन आएँ, तो लड़ लेना, दु:ख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती?

 

 

पिछला पृष्ठ गोदान अगला पृष्ठ
प्रेमचंद साहित्य का मुख्यपृष्ट हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

 

Kamasutra in Hindi

top