उनकी स्त्री गोमती ने आ कर विद्रोह के स्वर में कहा - क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जाय, जगह से न उठो? कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे? ओंकारनाथ ने दु:खी आँखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देख कर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली कटी सुना जाती थी, पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देख कर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुँह देख कर पूछा - क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या? ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा - कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी खुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पंद्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान् का मुँह देखा था। गोमती को विश्वास न आया, बोली - झूठे हो, तुम्हें पंद्रह सौ कहाँ मिल जाते हैं? पंद्रह रुपए कहो, मान लेती हूँ। नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की कसम, पंद्रह सौ मारे। अभी रायसाहब आए थे। सौ ग्राहकों का चंदा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं।' गोमती का चेहरा उतर गया- तो मिल चुके! 'नहीं, रायसाहब वादे के पक्के हैं।' 'मैंने किसी ताल्लुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुकेदार के नौकर थे। साल-साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़ कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मार कर भगा दिया। इनके वादों का कोई करार नहीं।' 'मैं आज ही बिल भेजता हूँ।' 'भेजा करो। कह देंगे, कल आना। कल अपने इलाके पर चले जाएँगे। तीन महीने में लौटेंगे।'
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