यह बात गोबर के मन में बैठ गई। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को ला कर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गए और उसने घर चलने की तैयारी कर दी, मगर याद आया कि होली आ रही है, इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोल कर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गई। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ, बहनों और झुनिया सबके लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए एक जापानी गुड़िया और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिंदूर और आइना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ्राक, जो बाजार में बना-बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गईं। बिस्तर भी बँधा गया, मुहल्ले वालों को खबर हो गई, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे विदा करने आए। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा - तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा। एक युवती ने मुस्करा कर कहा - मेहरिया को बिना लिए न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे। दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी - हाँ, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी! गोबर ने सबको राम-राम किया। हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे के दु:ख-दर्द के साथी थे। रोजा रखने वाले रोजा रखते थे। एकादशी रखने वाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंगों को बटखरे बनाता, लेकिन सांप्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-खुशी विदा करना चाहते हैं।
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