सिलिया जहाँ अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाए खड़ी थी, मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी माँ ने आ कर डाँटा - खड़ी ताकती क्या है? चल सीधे घर, नहीं बोटी-बोटी काट डालूँगी। बाप-दादा का नाम तो खूब उजागर कर चुकी, अब क्या करने पर लगी है? सिलिया मूर्तिवत खड़ी रही। माता-पिता और भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैं? वह जैसे चाहती है, रहती है, दूसरों से क्या मतलब? कहते हैं, यहाँ तेरा अपमान होता है, तब क्या कोई बाँभन उसका पकाया खा लेगा? उसके हाथ का पानी पी लेगा? अभी जरा देर पहले उसका मन मातादीन के निठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घर वालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया। विद्रोह-भरे मन से बोली - मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तू क्या यहाँ भी मुझे जीने न देगी? बुढ़िया कर्कश स्वर से बोली - तू न चलेगी? 'नहीं।' 'चल सीधे से।' 'नहीं जाती।' तुरंत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया जमीन पर बैठ गई। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गई, पीठ और कमर की खाल छिल गई, पर वह जाने पर राजी न हुई। तब हरखू ने लड़कों से कहा - अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गई, मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आई तो लहू पी जाऊँगा। सिलिया जान पर खेल कर बोली - हाँ, जब तुम्हारे द्वार पर आऊँ, तो पी लेना। बुढ़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं और हरखू ने उसे हटा न दिया होता, तो शायद प्राण ही ले कर छोड़ती। बुढ़िया फिर झपटी, तो हरखू ने उसे धक्के दे कर पीछे हटाते हुए कहा - तू बड़ी हत्यारिन है कलिया! क्या उसे मार ही डालेगी?
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