मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-24

पेज-248

सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फिक्र में था, पर हाथ खाली होने से कोई काबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे खेत गिरों रखने पड़ें। और अकेले होरी की बात चलती, तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बाँध कर खर्च करो, दो-ढाई सौ लग जाएँगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ-दो सौ दिए कोई कुलीन वर न मिल सकता था। पिछले साल चैती में कुछ मिला था तो पंडित दातादीन का आधा साझा, मगर पंडित जी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्यौरा बताया कि होरी के हाथ एक-चौथाई से ज्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फसल नष्ट हो गई, सन तो वर्षा अधिक होने और ऊख दीमक लग जाने के कारण। हाँ, इस साल चैती अच्छी थी और ऊख भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था, दो सौ रुपए भी हाथ आ जायँ, तो कन्या-ॠण से उसका उद्धार हो जाए। अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर दे, तो बाकी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जाएँगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गए थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपए मारे न जा सकते थे।

एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।

मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं।

होरी ने झुँझला कर कहा - लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता?

धनिया सिर हिला कर बोली - मान लो, गोबर परदेस न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी की जबान बंद हो गई। एक क्षण बाद बोला - मैं तो तुझसे पूछता हूँ।

धनिया ने जान बचाई - यह सोचना मरदों का काम है।

होरी के पास जवाब तैयार था - मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब तू क्या करती? वह कर।

धनिया ने तिरस्कार-भरी आँखों से देखा - तब मैं कुस-कन्या भी दे देती तो कोई हँसने वाला न था।

कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था, लेकिन कुल-मर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आए थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा-गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आए थे। आज भी बिरादरी में उसका नाम है। दस गाँव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या दे कर वह किसे मुँह दिखाएगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालो हैं, जमीन है और थोड़ी-सी साख भी है, अगर वह एक बीघा भी बेच दे, तो सौ मिल जायँ, लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही बीघे तो उसके पास है, अगर एक बीघा बेच दे, तो फिर खेती कैसे करेगा?

कई दिन इसी हैस-बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।

दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरीसिंह, पटेश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आए थे। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गए थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत बिंदेसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन में कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख-देख कर होरी का खून सूखता जाता था, मानों उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओले वाले पीले बादल उठे चले आते हों।

एक दिन तीनों उसी कुएँ पर नहाने जा पहुँचे, जहाँ होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का खून खौल उठा।

 

 

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