झुनिया ने कंपन-भरे स्वर में पूछा - अब मैं क्या करूँ दीदी? चुहिया ने ढाढ़स दिया - कुछ नहीं बेटी! भगवान का नाम ले। वही गरीबों की रक्षा करते हैं। उसी समय गोबर ने आँखें खोली और झुनिया को सामने देख कर याचना भाव से क्षीण स्वर में बोला - आज बहुत चोट खा गया झुनिया! मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा-सुना माफ कर! तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूँ। अब न बचूँगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है। चुहिया ने अंदर आ कर कहा - चुपचाप पड़े रहो। बोलो-चालो नहीं। मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा। गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला - सच कहती हो, मैं मरूँगा नहीं? 'हाँ, नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या है? जरा सिर में चोट आ गई है और हाथ की हड्डी उतर गई है। ऐसी चोटें मरदों को रोज ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता।' 'अब मैं झुनिया को कभी न मारूँगा।' 'डरते होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न मारे। 'वह मारेगी भी, तो कुछ न बोलूँगा। 'अच्छे होने पर भूल जाओगे।' 'नहीं दीदी, कभी न भूलूँगा। गोबर इस समय बच्चों-सी बातें किया करता। दस-पाँच मिनट अचेत-सा पड़ा रहता। उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ उड़ता फिरता। कभी देखता, वह नदी में डूबा जा रहा है, और झुनिया उसे बचाने के लिए नदी में चली आ रही है। कभी देखता, कोई दैत्य उसकी छाती पर सवार है और झुनिया की शक्ल में कोई देवी उसकी रक्षा कर रही है। और बार-बार चौंक कर पूछता - मैं मरूँगा तो नहीं झुनिया?
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