मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-28

पेज-279

मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आंदोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। जिले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गए थे और कई हजार का नुकसान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे, लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे, अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता, लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाए। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिला कर रुपए लिए गए थे कि इस काम में पंद्रह-बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़ा भी न मिले, तो वे डायरेक्टरों को और विशेषकर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज ही तो समझेंगे और फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे? और कंपनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हजार रूपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता था, मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह संतोष क्यों नहीं होता कि मंदी का समय है और चारों तरफ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गए हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिले, तो संतुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे संतुष्ट हैं। उनका कोई कसूर नहीं। वे तो मूर्ख हैं, बछिया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ और मिर्जा खुर्शेद की है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़ कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जाएँगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायँ, और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुजारे-भर को ले कर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगे? कहाँ की बात! और वह त्यागी मिर्जा खुर्शेद भी तो एक दिन लखपति थे। हजारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुजारे-भर को ले कर सब कुछ मजूरों में बाँट देते थे? वह उसी गुजारे की रकम में यूरोपियन छोकरियों के साथ विहार करते थे। बड़े-बड़े अफसरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हजारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर साल फ्रांस और स्विटजरलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है।

 

 

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