मालती ने और समीप आ कर उनकी पीठ पर हाथ रख कर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा - अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपने निंदा ज्यादा पसंद है। तो निंदा ही सुनो - खन्ना जी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल...... शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ नजर आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्ति स्तंभ की भाँति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा। मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है? देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक हो कर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गई? आग ही मालूम होती है। सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आए। खन्ना ने खड़े हो कर जोर से पूछा - तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो? एक आदमी ने रूक कर कहा - अजी, शक्कर-मिल में आग लग गई। आप देख नहीं रहे हैं? खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गई और अपने जूते पहन आई। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी ही थी। तीनों आदमी घबराए हुए आ कर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरास्ते पर पहुँचे तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है, कार आगे न बढ़ सकी। मेहता ने पूछा - आग-बीमा तो करा लिया था न! खन्ना ने लंबी साँस खींच कर कहा - कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफत आने वाली है। कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं, जैसे आकाश को भी निगल जाएँगी। उस अग्नि समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहा कर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा समितियों के सेवक भी, पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सफर में जा कर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और, जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।
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