धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला - चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें। धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी। नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोल कर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जा कर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ। 'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे।' 'सोना कहाँ गई? सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नजर बहुत लगती है।' 'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।' धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाए, यह शंका उसके निराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देख कर बोली - गाय के आने का आनंद तो तब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है। मानो वह भगवान को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ किर ईर्ष्यालु भगवान सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नई विपत्ति भेज दें। वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिए बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर आ पहुँचा। होरी दौड़ कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़ कर गाय के गले में बाँध दिया। होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात देवी जी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से। धनिया ने भयातुर हो कर कहा - खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो। 'आँगन में जगह कहाँ है?' 'बहुत जगह है।' 'मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ'। 'पागल न बनो। गाँव का हाल जान कर भी अनजान बनते हो?' 'अरे, बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बाँधोगी भाई?' 'जो बात नहीं जानते, उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की विद्दा तुम्हीं नहीं पढ़े हो।' होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव संपत्ति थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बँधी देख कर पूछें - यह किसका घर है? लोग कहें - होरी महतो का। तभी लड़की वाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अंदर छिपा कर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकलने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने को तैयार हो गई। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था, पर धनिया ने अकेले सबको परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्मविश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था। मगर तमाशा कैसे रूक सकता था? गाय डोली में बैठ कर तो आई न थी। कैसे संभव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़ कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आई है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे, पचास-साठ रुपए में लाए होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आए, सौ के भी आए, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगा? यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात देवी का रूप है। दर्शकों और आलोचकों का ताँता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़ कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न-चित्त वह कभी न था। सत्तर साल के बूढ़े पंडित दातादीन लठिया टेकते हुए आए और पोपले मुँह से बोले - कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें! सुना, बड़ी सुंदर है।
|