मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-31

पेज-319

रायसाहब ने बेदिली के साथ कहा - जी नहीं, मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे तो यह चिंता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मंद गति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आए थे, वह और भी जटिल हो गई। अंधकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आ कर उन्हें विदा किया।

रायसाहब सीधे अपने बँगले पर आए और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे, लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरंत बुला लिया।

तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिए कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुक कर सलाम करते हुए बोले - मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गए! हुजूर का मिजाज तो अच्छा है।

इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिलकुल भूलकर, रायसाहब का यशोगान आरंभ किया - ऐसी होम-मेंबरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिए हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।

रायसाहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वाला, परले सिरे का बेवगा और निर्लज्ज, मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आई। पूछा - आजकल आप क्या कर रहे हैं?

'कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर! राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निंदा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा - बस कीजिए महाराज, रायसाहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निंदा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। साफ कह दिया, आप कितना ही ठाठ-बाट दिखाएँ, पर रायसाहब की जो इज्जत है, वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाठ से नहीं होती, लियाकत से होती है। आपमें जो लियाकत है, वह तो दुनिया जानती है।

रायसाहब ने अभिनय किया - आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।

तंखा ने अकड़ कर कहा - मैं तो हुजूर साफ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए, हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मजदूरी साफ डकार गए। देना तो जानते ही नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन-दहाड़े औरतों को.......

कार की आवाज आई और राजा सूर्यप्रताप सिंह उतरे। रायसाहब ने कमरे से निकल कर उनका स्वागत किया और सम्मान के बोझ से नत हो कर बोले - मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।

यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रताप सिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य!

 

 

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