धनिया बोली - तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है। 'तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुका कर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुँह से अपने भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहर वालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे खून थोड़े ही बँट जाता है। दोनों को बुला कर दिखा देना चाहिए, नहीं कहेंगे गाय लाए, हमसे कहा, तक नहीं।' धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा - मैंने तुमसे सौ बार, हजार बार कह दिया, मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुन कर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी, मगर आएँ कैसे ? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गई। छाती फटी जाती होगी। दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जा कर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गई। पैसे होते तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी, कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुला कर प्यार से गोद में बैठाया और कहा - जरा जा कर देख, हीरा काका आ गए कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आएँ, हाथ पकड़ कर खींच लाना। रूपा ठुनक कर बोली - छोटी काकी मुझे डाँटती है। 'काकी के पास क्या करने जायगी! फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है?' 'सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं? मैं न कहूँगी।' 'क्या कहते हैं, बता?' 'चिढ़ाते हैं।' 'क्या कह कर चिढ़ाते हैं?' 'कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भून कर खा ले।' होरी के अंतस्तल में गुदगुदी हुई। 'तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी।' 'अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं, उन लोगों के घर न जाया करो।' 'तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की?' रूपा ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा - अम्माँ की और हँसने लगी। 'तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपने थाली में न खिलाऊँगा।'
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