मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-31

पेज-321

'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फन में उस्ताद है। खैर, आज बेचारे को अच्छा सबक मिल गया।'

इसके बाद रुद्रपाल के विवाह के बातचीत शुरू हुई। रायसाहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। रायसाहब को अपने तरफ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गई।

उन्होंने पूछा - आपको इसकी क्यों कर खबर हुई?

'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है, जो उसने मुझे दे दिया।'

'आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नजर नहीं आती, बस स्वच्छंदता की सनक सवार है।'

'सनक तो है ही, मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूँगा कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं!'

रायसाहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आई थी, लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। रायसाहब ने उसे ऊपरी वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को रायसाहब छोड़ न सके।

जैसे लज्जित हो कर बोले - लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मानवता की दृष्टि से?

राजा साहब ने बात काट कर कहा - आप मानवता लिए फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज भी मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से झगड़े न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।

छोटी-मोटी बहस छिड़ गई और वह विवाद के रूप में आ कर अंत में वितंडा बन गई और राजा साहब नाराज हो कर चले गए। दूसरे दिन रायसाहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था, प्रतिद्वंद्वी हो गए थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से रायसाहब पर हिसाब-फहमी का दावा किया। रायसाहब पर दस लाख की डिगरी हो गई। उन्हें डिगरी का इतना दु:ख न हुआ, जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़ कर दु:ख था, जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दु:ख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।

 

 

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