मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-35

पेज-346

उन्होंने पूछा - अब क्या कहते हो होरी?

होरी ने धनिया की ओर इशारा करके कहा - इससे पूछो।

'हम तुम दोनों से पूछते हैं।'

धनिया बोली - उमिर तो ज्यादा है, लेकिन तुम लोगों की राय है, तो मुझे भी मंजूर है। तकदीर में जो लिखा होगा, वह तो आगे आएगा ही, मगर आदमी अच्छा है।

और होरी को तो रामसेवक पर वह विश्वास हो गया था, जो दुर्बलों को जीवट वाले आदमियों पर होता है। वह शेखचिल्ली के-से मंसूबे बाँधने लगा था। ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार है।

विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया। गोबर को भी बुलाना होगा। अपनी तरफ से लिख दो, आने न आने का उसे अख्तियार है। यह कहने को तो मुँह न रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब था? सोना को भी बुलाना होगा।

धनिया ने कहा - गोबर तो ऐसा नहीं था, लेकिन जब झुनिया आने दे। परदेस जा कर ऐसा भूल गया कि न चिट्ठी न पत्री। न जाने कैसे हैं। यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गईं।

गोबर को खत मिला, तो चलने को तैयार हो गया। झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता था, पर इस अवसर पर कुछ कह न सकी। बहन के ब्याह में भाई का न जाना कैसे संभव है! सोना के ब्याह में न जाने का कलंक क्या कम है?

गोबर आर्द्र कंठ से बोला - माँ-बाप से खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है। अब हमारे हाथ-पाँव हैं, उनसे खिंच लें, चाहे लड़ लें, लेकिन जन्म तो उन्हीं ने दिया, पाल-पोस कर जवान तो उन्हीं ने किया, अब वह हमें चार बात भी कहें, तो हमें गम खाना चाहिए। इधर मुझे बार-बार अम्माँ-दादा की याद आया करती है। उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर गुस्सा आ गया। तेरे कारन माँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा।

झुनिया तिनक उठी - मेरे सिर पर यह पाप न लगाओ, हाँ! तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी। मैं तो अम्माँ के पास इतने दिन रही, कभी साँस तक न लिया।

'लड़ाई तेरे कारन हुई।'

'अच्छा, मेरे ही कारन सही। मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपना घर-बार छोड़ दिया।'

'तेरे घर में कौन तुझे प्यार करता था - भाई बिगड़ते थे, भावजें जलाती थीं। भोला जो तुझे पा जाते, तो कच्ची ही खा जाते।'

'तुम्हारे ही कारन।'

'अबकी जब तक रहें, इस तरह रहें कि उन्हें भी जिंदगानी का कुछ सुख मिले, उनकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करें। दादा इतने अच्छे हैं कि कभी मुझे डाँटा तक नहीं। अम्माँ ने कई बार मारा है, लेकिन जब मारती थीं, तब कुछ-न-कुछ खाने को दे देती थीं। मारतीं थीं, पर जब तक मुझे हँसा न लें, उन्हें चैन न आता था।'

दोनों ने मालती से जिक्र किया। मालती ने छुट्टी ही नहीं दी, कन्या के उपहार के लिए एक चर्खा और हाथों का कंगन भी दिया। वह खुद जाना चाहती थी, लेकिन कई ऐसे मरीज उसके इलाज में थे, जिन्हें एक दिन के लिए भी न छोड़ सकती थी। हाँ, शादी के दिन आने का वादा किया और बच्चे के लिए खिलौनों का ढेर लगा दिया। उसे बार-बार चूमती थी और प्यार करती थी, मानो सब कुछ पेशगी ले लेना चाहती है और बच्चा उसके प्यार की बिलकुल परवा न करके घर चलने के लिए खुश था - उस घर के लिए, जिसको उसने देखा तक न था। उसकी बाल-कल्पना में घर स्वर्ग से भी बढ़ कर कोई चीज थी।

गोबर ने घर पहुँच कर उसकी दशा देखी, तो ऐसा निराश हुआ कि इसी वक्त यहाँ से लौट जाए। घर का एक हिस्सा गिरने-गिरने को हो गया था। द्वार पर केवल एक बैल बँधा हुआ था, वह भी नीमजान। धनिया और होरी दोनों फूले न समाए, लेकिन गोबर का जी उचाट था। अब इस घर के सँभलने की क्या आशा है! वह गुलामी करता है, लेकिन भरपेट खाता तो है। केवल एक ही मालिक का तो नौकर है। यहाँ तो जिसे देखो, वही रोब जमाता है। गुलामी है, पर सूखी। मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपए मिलें, वह दूसरों को दे दो। आप बैठे राम-राम करो। दादा ही का कलेजा है कि यह सब सहते हैं। उससे तो एक दिन न सहा जाए। और, यह दशा कुछ होरी ही की न थी। सारे गाँव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते-फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो।

 

 

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