मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-5

पेज-40

उसने पूछा - मन से कहती हो झूना कि खाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका, लेकिन तुम भी मेरी हो जाओगी?

'तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ?'

'तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ'।

'जान देने का अरथ भी समझते हो'

'तुम समझा दो न।'

'जान देने का अरथ है, साथ रह कर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़ कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बंद, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देने वाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस ले कर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे?'

गोबर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ पड़ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई।

झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गंभीर भाव से बोली - आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना।

'खूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।'

झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली - इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो खाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध ले कर बाजार जाती हूँ। एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रख कर कहता है, झुनिया, तरसा मत, कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोस हो गया है, कोई रूपया दिखाता है, कोई गहने। सब मेरी गुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर-भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे रस ले कर उड़ जाने वाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नजरों से देखती हूँ, मुस्कराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आएगा। वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी, सुख में, दु:ख में, संपत में, विपत में, उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती-बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पंडित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आधा सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गई थी। मुझे क्या मालूम और दिनों की तरह दूध लिए भीतर चली गई। वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पंडित जी बाहर के किवाड़ बंद किए चले आ रहे हैं। मैं समझ गई इसकी नीयत खराब है। मैंने डाँट कर पूछा - तुमने किवाड़ क्यों बंद कर लिए? क्या बहूजी कहीं गई हैं? घर में सन्नाटा क्यों है?

 

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