तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा?' विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा - वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार। 'मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।' तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पाएगी, और धनिया से अब उसका कोई संबंध नहीं। जहाँ चाहे जाए। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गई है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है? जब गली-गली ठोकर खाएगी, तब पता चलेगा। गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए कानाफूसी शुरू की। दातादीन ने गंजा सिर हिला कर कहा - यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में क्या रखा है? पटेश्वरीलाल बहुत लंबे थे; पर लंबे हो कर भी बेवकूफ न थे। अपना लंबा, काला मुँह और लंबा करके बोले - और यहाँ आया है किसलिए, और जब आया है, बिना कुछ लिए दिए गया कब है। झिंगुरीसिंह ने होरी को बुला कर कान में कहा - निकालो, जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा। दारोगा जी ने अब जरा गरज कर कहा - मैं हीरा के घर की तलाशी लूँगा। होरी के मुख का रंग उड़ गया था, जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई तो, एक ही बात है। हीरा अलग सही, पर दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है, मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपए होते, तो इसी वक्त पचास रुपए ला कर दारोगा जी के चरणों पर रख देता और कहता - सरकार, मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो जहर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों, पर वह चुड़ैल भला क्यों देने लगी? मृत्यु-दंड पाए हुए आदमी की भाँति सिर झुकाए, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। दातादीन ने होरी को सचेत किया - अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी! रुपए की कोई जुगत करो।
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