'तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?' 'जब ऐसा कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं, नहीं पटवारी को कौन पूछता है?' 'अच्छा जाओ, तीस रुपए दिलवा दो, बीस रुपए हमारे दस रुपए तुम्हारे।' 'चार मुखिया हैं, इसका खयाल कीजिए।' 'अच्छा आधे-आध पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।' पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा - झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गए, तीस रुपए गिन कर उसके हवाले किए और एहसान से दबाते हुए बोले - आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुँह देख कर रुपए दे रहा हूँ, तुम्हारी भलमंसी पर। होरी ने रुपए लिए और अँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न-मुख आ कर दारोगा जी की ओर चला। सहसा धनिया झपट कर आगे आई और अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गई और सारे रुपए जमीन पर बिखर गए। नागिन की तरह फुंकार कर बोली - ये रुपए कहाँ लिए जा रहा है, बता? भला चाहता है, तो सब रुपए लौटा दे, नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली-भर रुपए ले कर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्जत वाला है। दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गई, उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत! होरी खून का घूँट पी कर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गए। दारोगा का मुँह जरा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी। होरी स्तंभित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाए! मगर दारोगा जी इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे। खिसिया कर बोले - मुझे ऐसा मालूम होता है, कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फँसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया।
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