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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
दूसरा भाग - पाँच
पेज- 110
मुन्नी उदास होकर बोली-तो तुम इतनी जरा-सी बात पर रूठ गए- जरा किसी से पूछो, मैं आज कितने दिनों के बाद नाची हूं। दो साल से मैं नफाड़े के पास नहीं गई। लोग कह-कहकर हार गए। आज तुम्हीं ले गए, और अब उलटे तुम्हीं नाराज होते हो ।
मुन्नी घर में चली गई। थोड़ी देर बाद काशी ने आकर कहा-भाभी, तुम यहां क्या कर रही हो- वहां सब लोग तुम्हें बुला रहे हैं।
मुन्नी ने सिरदर्द का बहाना किया।
काशी आकर अमर से बोला-तुम क्यों चले आए, भैया- क्या गंवारों का नाच-गाना अच्छा न लगा।
अमर ने कहा-नहीं जी, यह बात नहीं। एक पंचायत में जाना है देर हो रही है।
काशी बोला-भाभी नहीं जा रही है। इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है। तुम चलकर कह दो, तो साइत चली जाए। कौन रोज-रोज यह दिन आता है। बिरादरी वाली बात है। लोग कहेंगे, हमारे यहां काम आ पड़ा, तो मुंह छिपाने लगे।
अमर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुमने समझाया नहीं-
फिर अंदर जाकर कहा-मुझसे नाराज हो गई, मुन्नी-
मुन्नी आंगन में आकर बोली-तुम मुझसे नाराज हो गए हो कि मैं तुमसे नाराज हो गई-
'अच्छा, मेरे कहने से चलो।'
'जैसे बच्चे मछलियों को खेलाते हैं, उसी तरह तुम मुझे खेला रहे हो, लाला जब चाहा रूला दिया जब चाहा हंसा दिया।'
'मेरी भूल थी, मुन्नी क्षमा करो।'
'लाला, अब तो मुन्नी तभी नाचेगी, जब तुम उसका हाथ पकड़कर कहोगे-चलो हम-तुम नाचें। वह अब और किसी के साथ न नाचेगी।'
'तो अब नाचना सीखूं?'
मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा-मेरे साथ नाचना चाहोगे, तो आप सीखोगे।
'तुम सिखा दोगी?'
'तुम मुझे रोना सिखा रहे हो, मैं तुम्हें नाचना सिखा दूंगी।'
'अच्छा चलो।'
कॉलेज के सम्मेलनों में अमर कई बार ड्रामा खेल चुका था। स्टेज पर नाचा भी था, गाया भी था पर उस नाच और इस नाच में बड़ा अंतर था। वह विलासियों की कर्म-क्रीड़ा थी, यह श्रमिकों की स्वच्छंद केलि। उसका दिल सहमा जाता था।
उसने कहा-मुन्नी, तुमसे एक वरदान मांगता हूं।
मुन्नी ने ठिठककर कहा-तो तुम नाचोगे नहीं-
'यही तो तुमसे वरदान मांग रहा हूं।'
अमर 'ठहरो-ठहरो' कहता रहा पर मुन्नी लौट पड़ी।
अमर भी अपनी कोठरी में चला आया, और कपड़े पहनकर पंचायत में चला गया। उसका सम्मान बढ़ रहा है। आस-पास के गांवों में भी जब कोई पंचायत होती है, तो उसे अवश्य बुलाया जाता है।
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