मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

premchand karmboomi premchand novel best story

कर्मभूमि

दूसरा भाग - छ:

पेज- 112

'गांव में है ही कौन?'
'कहां चले गए सब?'
'वाह तुम्हें खबर ही नहीं- पहर रात सिरोमनपुर के ठाकुर की गाय मर गई, सब लोग वहीं गए हैं। आज घर-घर सिकार बनेगा।'
'अमर ने घृणा-सूचक भाव से कहा-मरी गाय?'
'हमारे यहां भी तो खाते हैं, यह लोग।'
'क्या जाने- मैंने कभी नहीं देखा। तुम तो...'
मुन्नी ने घृणा से मुंह बनाकर कहा-मैं तो उधर ताकती भी नहीं।
'समझाती नहीं इन लोगों को?'
'उंह समझाने से माने जाते हैं, और मेरे समझाने से।'
अमरकान्त की वंशगत वैष्णव वृत्ति इस घृणित, पिशाच कर्म से जैसे मतलाने लगी। उसे सचमुच मतली हो आई। उसने छूत-छात और भेदभाव को मन से निकाल डाला था पर अखा? से वही पुरानी घृणा बनी हुई थी। और वह दस-ग्यारह महीने से इन्हीं मुरदाखोरों के घर भोजन कर रहा है।
'आज मैं खाना नहीं खाऊंगा, मुन्नी ।'
'मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूंगी।'
'नहीं मुन्नी जिस घर में वह चीज पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायेगा।'
सहसा शोर सुनकर अमर ने आंखें उठाईं, तो देखा कि पंद्रह-बीस आदमी बांस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे हैं। सामने कई लड़के उछलते-कूदते तालियां बजाते चले आते थे।
कितना बीभत्स दृश्य था। अमर वहां खड़ा न रह सका। गंगा-तट की ओर भागा।
मुन्नी ने कहा-तो भाग जाने से क्या होगा- अगर बुरा लगता है तो जाकर समझाओ।
'मेरी बात कौन सुनेगा, मुन्नी?'
'तुम्हारी बात न सुनेंगे, तो और किसकी बात सुनेंगे, लाला?'
'और जो किसी ने न माना?'
'और जो मान गए आओ, कुछ-कुछ बद लो।'
'अच्छा क्या बदती हो?'
'मान जायें तो मुझे एक अच्छी-सी साड़ी ला देना।'
'और न माने, तो तुम मुझे क्या दोगी?'
'एक कौड़ी।'

 

 

 

पिछला पृष्ठ कर्मभूमि अगला पृष्ठ
प्रेमचंद साहित्य का मुख्यपृष्ट हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

 

 

top