मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - सात

पेज- 118

मुन्नी ने हर्ष को जैसे मुट्ठी में दबाकर कहा-क्या कहती हो काकी, कहां मैं, कहां वह। मुझसे कई साल छोटे होंगे। फिर ऐसे विद्वान्, ऐसे चतुर मैं तो उनकी जूतियों के बराबर भी नहीं।
काकी ने कहा था-यह सब ठीक है मुन्नी, पर तेरा जादू उन पर चल गया है यह मैं देख रही हूं। संकोची आदमी मालूम होते हैं, इससे तुझसे कुछ कहते नहीं पर तू उनके मन में समा गई है, विश्वास मान। क्या तुझे इतना भी नहीं सूझता- तुझे उनकी शर्म दूर करनी पड़ेगी।
मुन्नी ने पुलकित होकर कहा था-तुम्हारी असीस है काकी, तो मेरा मनोरथ भी पूरा हो जाएगा।
मुन्नी एक क्षण अमर को देखती रही, तब झोपडी में जाकर उसकी खाट निकाल लाई। अमर का ध्‍यान टूटा। बोला-रहने दो, मैं अभी बिछाए लेता हूं। तुम मेरा इतना दुलार करोगी मुन्नी, तो मैं आलसी हो जाऊंगा। आओ, तुम्हें हिन्दू-देवियों की कथा सुनाऊं।
'कोई कहानी है क्या?'
'नहीं, कहानी नहीं, सच्ची बात है।'
अमर ने मुसलमानों के हमले, क्षत्राणियों के जुहार और राजपूत वीरों के शौर्य की चर्चा करते हुए कहा-उन देवियों को आग में जल मरना मंजूर था पर यह मंजूर न था कि परपुरुष की निगाह भी उन पर पड़े। अपनी आन पर मर मिटती थीं। हमारी देवियों का यह आदर्श था। आज यूरोप का क्या आदर्श है- जर्मन सिपाही फ्रांस पर चढ़ आए और पुरुषों से गांव खाली हो गए, तो फ्रांस की नारियां जर्मन सैनिकों ही से प्रेम क्रीड़ा करने लगीं।
मुन्नी नाक सिकोड़कर बोली-बड़ी चंचल हैं सब लेकिन उन स्त्रियों से जीते जी कैसे जला जाता था-
अमर ने पुस्तक बंद कर दी-बड़ा कठिन है, मुन्नी यहां तो जरा-सी चिंगारी लग जाती है, तो बिलबिला उठते हैं। तभी तो आज सारा संसार उनके नाम के आगे सिर झुकाता है। मैं तो जब यह कथा पढ़ता हूं तो रोएं खड़े हो जाते हैं। यही जी चाहता है कि जिस पवित्र-भूमि पर उन देवियों की चिताएं बनीं, उसकी राख सिर पर चढ़ाऊं, आंखों में लगाऊं और वहीं मर जाऊं।
मुन्नी किसी विचार में डूबी भूमि की ओर ताक रही थी।
अमर ने फिर कहा-कभी-कभी तो ऐसा हो जाता था कि पुरुषों को घर के माया-मोह से मुक्त करने के लिए स्त्रियां लड़ाई के पहले ही जुहार कर लेती थीं। आदमी की जान इतनी प्यारी होती है कि बूढ़े भी मरना नहीं चाहते। हम नाना कष्ट झेलकर भी जीते हैं, बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा भी जीवन का मोह नहीं छोड़ सकते पर उन देवियों के लिए जीवन खेल था।

 

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