मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - सात

पेज- 125

मैंने देखा स्वामी ने बच्चे को उठा लिया, जिसे एक क्षण पहले गोद से उतार दिया था और उलटे पांव लौट पड़े। उनकी आंखों से आंसू जारी थे, और नहीं कांप रहे थे।
देवीजी ने भलमनसी से काम लेकर स्वामी को बैठाना चाहा, पूछने लगीं-क्या बात है, क्यों रूठी हुई हैं पर स्वामी ने कोई जवाब न दिया। बाबू साहब फाटक तक उन्हें पहुंचाने गए। कह नहीं सकती, दोनों जनों में क्या बातें हुईं पर अनुमान करती हूं कि बाबूजी ने मेरी प्रशंसा की होगी। मेरा दिल अब भी कांप रहा था कि कहीं स्वामी सचमुच आत्मघात न कर लें। देवियों और देवताओं की मनौतियां कर रही थी कि मेरे प्यारों की रक्षा करना।
ज्योंही बाबूजी लौटे, मैंने धीरे से किवाड़ खोलकर पूछा-किधर गए- कुछ और कहते थे-
बाबूजी ने तिरस्कार-भरी आंखों से देखकर कहा-कहते क्या, मुंह से आवाज भी तो निकले। हिचकी बांधी हुई थी। अब भी कुशल है, जाकर रोक लो। वह गंगाजी की ओर ही गए हैं। तुम इतनी दयावान होकर भी इतनी कठोर हो, यह आज ही मालूम हुआ। गरीब, बच्चों की तरह ठ्ठक-ठ्ठटकर रो रहा था।
मैं संकट की उस दशा को पहुंच चुकी थी, जब आदमी परायों को अपना समझने लगता है। डांटकर बोली-तब भी तुम दौड़े यहां चले आए। उनके साथ कुछ देर रह जाते, तो छोटे न हो जाते, और न यहां देवीजी को कोई उठा ले जाता। इस समय वह आपे में नहीं हैं, फिर भी तुम उन्हें छोड़कर भागे चले आए।
देवीजी बोलीं-यहां न दौड़े आते, तो क्या जाने मैं कहीं निकल भागती- लो, आकर घर में बैठो। मैं जाती हूं। पकड़कर घसीट न लाऊं, तो अपने बाप की नहीं ।
धर्मशाला में बीसों ही यात्री टिके हुए थे। सब अपने-अपने द्वार पर खड़े यह तमाशा देख रहे थे। देवीजी ज्योंही निकलीं, चार-पांच आदमी उनके साथ हो लिए। आधा घंटे में सभी लौट आए। मालूम हुआ कि वह स्टेशन की तरफ चले गए।
पर मैं जब तक उन्हें गाड़ी पर सवार होते न देख लूं चैन कहां- गाड़ी प्रात:काल जाएगी। रात-भर वह स्टेशन पर रहेंगे। ज्योंही अंधेरा हो गया, मैं स्टेशन जा पहुंची। वह एक वृक्ष के नीचे कंबल बिछाए बैठे हुए थे। मेरा बच्चा लोटे को गाड़ी बनाकर डोर से खींच रहा था। बार-बार गिरता था और उठकर खींचने लगता था। मैं एक वृक्ष की आड़ में बैठकर यह तमाशा देखने लगी। तरह-तरह की बातें मन में आने लगीं। बिरादरी का ही तो डर है। मैं अपने पति के साथ किसी दूसरी जगह रहने लगूं, तो बिरादरी क्या कर लेगी लेकिन क्या अब मैं वह हो सकती हूं, जो पहले थी-
एक क्षण के बाद फिर वही कल्पना। स्वामी ने साफ कहा है, उनका दिल साफ है। बातें बनाने की उनकी आदत नहीं। तो वह कोई बात कहेंगे ही क्यों, जो मुझे लगे। गड़े मुरदे उखाड़ने की उनकी आदत नहीं। वह मुझसे कितना प्रेम करते थे। अब भी उनका हृदय वही है। मैं व्यर्थ के संकोच में पड़कर उनका और अपना जीवन चौपट कर रही हूं लेकिन

 

 

 

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