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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
तीसरा भाग - चार
पेज- 139
नैना को भी धर्म के पाखंड से चिढ़ थी। अमरकान्त उससे इस विषय पर अक्सर बातें किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकान्त का भय न होता, तो उसने ब्रह्यचारीजी को फटकार बताई होती इसीलिए जब शान्तिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े हाथ लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणों पर लोटने लगी। अमरकान्त से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रध्दा उठी कि जाकर उनसे कहे-तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूं। अपने आसपास के आदमियों को क्रोधित देख-देखकर उसे भय हो रहा था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डॉक्टर के पास खड़ी हो जाए और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गए, तो उसका चित्त शांत हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आई।
सुखदा ने रास्ते में कहा-ये दुष्ट न जाने कहां से फट पड़े- उस पर डॉक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लड़ने को तैयार हो गए।
नैना ने कहा-भगवान् ने तो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा नहीं बनाया-
'भगवान् ने नहीं बनाया, तो किसने बनाया?'
'अन्याय ने।'
'छोटे-बड़े संसार में सदा रहे हैं और रहेंगे।'
नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।
दूसरे दिन संध्या समय उसे खबर मिली कि आज नौजवान-सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मंदिर में सुखदा के साथ तो गई पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियां लेने लगी-आज यह कृत्य शीघ्र ही होने लगा-तो वह चुपके से बाहर आई और एक तांगे पर बैठकर नौजवान-सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की खबर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जरा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर लहरियां कानों में आईं। तांगा उस स्थान पर पहुंचा, तो शान्तिकुमार मंच पर आ गए थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डॉक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भांति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो तांगे पर मंत्र-मुग्ध-सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली कतार में सबके पीछे खड़ी हो गई।
एक बुढ़िया बोली-कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।
नैना ने कहा-बड़े आराम से हूं। सुनाई दे रहा है।
बुढ़िया आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शान्तिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में है। मानो वहां की वायु सुधामयी हो गई है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानो वे किसी नवीन संपत्ति के स्वामी हो गए हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शान्तिकुमार कह रहे थे-क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आए हो- तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मंदिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है- क्या तुम सदैव इसी भांति पतित और दलित बने रहना चाहते हो-
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