मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

तीसरा भाग - सात

पेज- 153

सहसा सलीम की मोटर आई, और सलीम ने उतरकर हाथ मिलाते हुए कहा-अब तो आप अच्छे मालूम होते हैं। चलने-फिरने में दिक्कत तो नहीं होती-
शान्तिकुमार ने शिकवे के अंदाज से कहा-मुझे दिक्कत होती है या नहीं होती तुम्हें इससे मतलब महीने भर के बाद तुम्हारी सूरत नजर आई है। तुम्हें क्या फिक्र कि मैं मरा या जीता हूं- मुसीबत में कौन साथ देता है तुमने कोई नई बात नहीं की ।
'नहीं डॉक्टर साहब, आजकल इम्तिहान के झंझट में पड़ा हुआ हूं, मुझे तो इससे नफरत है। खुदा जानता है, नौकरी से मेरी देह कांपती है लेकिन करूं क्या, अब्बाजान हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। वह तो आप जानते ही हैं, मैं एक सीधा जुमला ठीक नहीं लिख सकता मगर लियाकत कौन देखता है- यहां तो सनद देखी जाती है। जो अफसरों का रूख देखकर काम कर सकता है, उसके लायक होने में शुबहा नहीं। आजकल यही फन सीख रहा हूं।'
शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा-मुबारक हो लेकिन आई. सी. एस. की सनद आसान नहीं है।
सलीम ने कुछ इस भाव से कहा, जिससे टपक रहा था, आप इन बातों को क्या जानें- जी हां, लेकिन सलीम भी इस फन में उस्ताद है। बी. ए तक तो बच्चों का खेल था। आई. सी. एस. में ही मेरे कमाल का इम्तिहान होगा। सबसे नीचे मेरा नाम गजट में न निकले, तो मुंह न दिखाऊं। चाहूं तो सबसे ऊपर भी आ सकता हूं, मगर फायदा क्या- रुपये तो बराबर ही मिलेंगे।
शान्तिकुमार ने पूछा-तो तुम भी गरीबों का खून चूसोगे क्या-
सलीम ने निर्लज्जता से कहा-गरीबों के खून पर तो अपनी परवरिश हुई। अब और क्या कर सकता हूं- यहां तो जिस दिन पढ़ने बैठे, उसी दिन से मुर्तिखोरी की धुन समाई लेकिन आपसे सच कहता हूं डॉक्टर साहब, मेरी तबीयत उस तरफ नहीं है कुछ दिनों मुलाजमत करने के बाद मैं भी देहात की तरफ चलूंगा। गाएं-भैंसे पालूंगा, कुछ फल-वल पैदा करूंगा, पसीने की कमाई खाऊंगा। मालूम होगा, मैं भी आदमी हूं। अभी तो खटमलों की तरह दूसरों के खून पर ही जिंदगी कटेगी लेकिन मैं कितना ही गिर जाऊं, मेरी हमदर्दी गरीबों के साथ रहेगी। मैं दिखा दूंगा कि अफसरी करके भी पब्लिक की खिदमत की जा सकती है। हम लोग खानदानी किसान हैं। अब्बाजान ने अपने ही बूते से यह दौलत पैदा की। मुझे जितनी मुहब्बत रिआया से हो सकती है, उतनी उन लोगों को नहीं हो सकती, जो खानदानी रईस हैं। मैं तो कभी अपने गांवों में जाता हूं, तो मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह लोग मेरे अपने हैं। उनकी सादगी और मशक्कत देखकर दिल में उनकी इज्जत होती है। न जाने कैसे लोग उन्हें गालियां देते हैं, उन पर जुल्म करते हैं- मेरा बस चले, तो बदमाश अफसरों को कालेपानी भेज दूं।

 

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