मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

तीसरा भाग - सात

पेज- 156

सलीम को बिदा करके वह लाला समरकान्त के घर चले। समरकान्त को अमर का पत्र दिखाकर सुर्खई बनना चाहते थे। जो समस्या अभी वह हल कर चुके थे, उसके विषय में फिर कुछ संदेह उत्पन्न हो रहे थे। उन संदेहों को शांत करना भी आवश्यक था। समरकान्त तो कुछ खुलकर उनसे न मिले। सुखदा ने उनको खबर पाते ही बुला लिया। रेणुका बाई भी आई हुई थीं।
शान्तिकुमार ने जाते-ही-जाते अमरकान्त का पत्र निकालकर सुखदा के सामने रख दिया और बोले-सलीम ने चार दिनों से अपनी जेब में डाल रखा था और मैं घबरा रहा था कि बात क्या है-
सुखदा ने पत्र को उड़ती हुई आंखों से देखकर कहा-तो मैं इसे लेकर क्या करूं-
शान्तिकुमार ने विस्मित होकर कहा-जरा एक बार इसे पढ़ तो जाइए। इससे आपके मन की बहुत-सी शंकाए मिट जाएंगी।
सुखदा ने रूखेपन के साथ जवाब दिया-मेरे मन में किसी की तरफ से कोई शंका नहीं है। इस पत्र में भी जो कुछ लिखा होगा, वह मैं जानती हूं। मेरी खूब तारीफें की गई होंगी। मुझे तारीफ की जरूरत नहीं। जैसे किसी को क्रोध आ जाता है, उसी तरह मुझे वह आवेश आ गया। यह भी क्रोध के सिवा और कुछ न था। क्रोध की कोई तारीफ नहीं करता।
'यह आपने कैसे समझ लिया कि इसमें आपकी तारीफ की है?'
'हो सकता है, खेद भी प्रकट किया हो ।'
'तो फिर आप और चाहती क्या हैं?'
'अगर आप इतना भी नहीं समझ सकते, तो मेरा कहना व्यर्थ है।'
रेणुका बाई अब तक चुप बैठी थीं। सुखदा का संकोच देखकर बोलीं-जब वह अब तक घर लौटकर नहीं आए, तो कैसे मालूम हो कि उनके मन के भाव बदल गए हैं। अगर सुखदा उनकी स्त्री न होती, तब भी तो उसकी तारीफ करते। नतीजा क्या हुआ। जब स्त्री-पुरुष सुख से रहें, तभी तो मालूम हो कि उनमें प्रेम है। प्रेम को छोड़िए। प्र्रेम तो बिरले ही दिलों में होता है। धर्म का निबाह तो करना ही चाहिए। पति हजार कोस पर बैठा हुआ स्त्री की बड़ाई करे। स्त्री हजार कोस पर बैठी हुई मियां की तारीफ करे, इससे क्या होता है-

 

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